

दहरेपन का अद्भुत प्रदर्शन करते हुए, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने तीन दिन (26-28 अगस्त, 2025) अपने संगठन को एक राष्ट्रवादी, उदार, समावेशी और अहिंसक संगठन के रूप में प्रस्तुत करने के दृष्टिकोण से बिताए, जो केवल यही चाहता है कि भारत पूरी मानवता को शांति और समृद्धि के युग में ले जाए। यह अवसर अगले महीने आरएसएस के 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में नई दिल्ली में आयोजित एक व्याख्यान का था। इस विशाल समागम में सावधानीपूर्वक चयनित विनम्र श्रोता उपस्थित थे, जिसमें राजधानी के बुद्धिजीवी, पत्रकार, शिक्षाविद, पूर्व नौकरशाह और कुछ राजनैतिक दलों के आमंत्रित सदस्य आदि शामिल थे।
भागवत ने कुछ चौंकाने वाले दावे किए – भारत पहले से ही एक हिंदू राष्ट्र है ; यह पहले से ही अखंड भारत भी है ; भारत के सभी निवासी, चाहे उनकी पूजा पद्धति कुछ भी हो, ‘हिंदू’ हैं, बशर्ते उनमें मातृभूमि, संस्कृति और पूर्वजों के प्रति श्रद्धा हो ; और, हिंदू धार्मिक नेताओं ने 1972 में ही उडुपी सम्मेलन में घोषणा कर दी थी कि हिंदू धर्म में जाति-आधारित भेदभाव का कोई स्थान नहीं है और सभी लोग इसके विरुद्ध हैं। यह सब समावेशिता, सहिष्णुता और मानवता की भावना से ओतप्रोत था।
क्या भागवत व्याख्यान के शीर्षक के अनुसार एक आरएसएस के एक नए दृष्टिकोण का या “नए क्षितिज” का उद्घोष कर रहे थे? या यह भारतीयों के उस बड़े वर्ग को प्रभावित करने की कोई चाल थी – जिसमें हिंदू भी शामिल हैं – जो आरएसएस की एक सदी की “सेवा” और “बलिदान” के बाद भी उसका समर्थन नहीं करते? या यह सिर्फ़ आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व की भ्रमित सोच थी, जो इतने लंबे समय से अपने कट्टर सिद्धांतों को छिपाकर मोदी के नेतृत्व वाले शासन को कायम रखने में मदद करने की कोशिश कर रहा है? इसका उत्तर आंशिक रूप से तीसरे दिन की कार्यवाही में, जो एक सुनियोजित प्रश्नोत्तर सत्र था, और भागवत के अन्यत्र दिए गए भाषणों में, और वास्तव में, संघ परिवार की गतिविधियों में पाया जा सकता है। आइए इन पहेलियों को सुलझाने का प्रयास करें।
*अपने ही आख्यान को फुस्स करते हुए*
तीसरे दिन के प्रश्नोत्तर सत्र में, भागवत को सभ्यतागत आकांक्षाओं के दुर्लभ धरातल से हटकर देश के रोज़मर्रा के मामलों में हाथ डालना पड़ा। इस प्रक्रिया में, सच्चाई सामने आ गई।
उदाहरण के लिए, जब वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि स्थल को ‘मुक्त’ कराने की माँगों के प्रति संघ के दृष्टिकोण के बारे में पूछा गया, तो भागवत ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आंदोलन शुरू करने का खुला मौसम घोषित कर दिया। उन्होंने कहा कि हालाँकि आरएसएस स्वयं इन आंदोलनों में शामिल नहीं होगा (जैसा कि उसने राम जन्मभूमि आंदोलन में किया था), लेकिन उसके सदस्य ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं।
उन्होंने कहा, “राम मंदिर हमारी माँग थी और हमने उस आंदोलन का समर्थन किया था, लेकिन संघ अब अन्य आंदोलनों में भाग नहीं लेगा। फिर भी, हिंदू जनमानस में काशी, मथुरा और अयोध्या का गहरा महत्व है — दो जन्मभूमि हैं, एक निवास स्थान है। हिंदू समाज के लिए यह आग्रह व्यक्त करना स्वाभाविक है।”
एक ही झटके में उन्होंने संविधान, देश के कानून और न केवल अपने नेतृत्व वाले संगठन, बल्कि उस पूरे हिंदू समुदाय, (जिसके बारे में उनकी यह गलत समझ है कि आरएसएस उनका प्रतिनिधित्व करता है) के प्रति अपनी समावेशी-सहिष्णु-मानवता की प्रतिबद्धता की सारी बातों को ध्वस्त कर दिया। पूजा स्थल अधिनियम, 1991, धार्मिक स्थलों के स्वामित्व के प्रश्न को फिर से खोलने पर स्पष्ट रूप से रोक लगाता है और कहता है कि स्वतंत्रता के समय जो धार्मिक स्थल जैसा था, वैसा ही रहना चाहिए। फिर भी भागवत वही पुराना तर्क देते हैं कि अगर हिंदू कुछ चाहते हैं, तो उनकी इच्छाएँ पूरी होनी चाहिए। वे आरएसएस सदस्यों को सावधानीपूर्वक आंदोलन करने की अनुमति भी देते हैं। यह सर्वविदित है — और आरएसएस भी इसे स्वीकार करता है — कि विश्व हिंदू परिषद जैसे विभिन्न संबद्ध संगठन, ऐसे संबद्ध संगठनों में प्रमुख पदों पर बैठे उसके कुछ सदस्यों के माध्यम से, व्यावहारिक रूप से आरएसएस के निर्देशों पर चलते हैं। वास्तव में, हर साल एक समन्वय बैठक होती है, जिसमें सभी 32 संबद्ध संगठनों के प्रतिनिधि और पूरा आरएसएस नेतृत्व अपनी गतिविधियों की समीक्षा और भविष्य की कार्ययोजना बनाने के लिए शामिल होता है। इस वर्ष, जब आप यह पढ़ रहे हैं, यह बैठक जोधपुर में हो रही है। इसमें विहिप के नेताओं के साथ-साथ अन्य लोग भी उपस्थित हैं। तो, भागवत मूलतः इन संगठनों को हरी झंडी दे रहे हैं।
जनसंख्या नियंत्रण पर उन्होंने यह विचित्र दावा किया कि प्रति दंपत्ति तीन बच्चे संतुलन बनाए रखने के लिए वांछित मानदंड हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि धर्मांतरण और घुसपैठ जनसांख्यिकीय असंतुलन पैदा कर रहे हैं। इसके पीछे क्या तर्क है? यह फिर से उस सौ साल पुरानी कहावत की ओर संकेत है कि मुस्लिम आबादी हिंदुओं से आगे निकल जाएगी। इसी वजह से आरएसएस हमेशा जनसंख्या नियंत्रण के उपायों के प्रति सतर्क रहा है, क्योंकि उसे लगता है कि हिंदू तो चुपचाप नियंत्रण अपना लेंगे, जबकि मुसलमान नहीं। सच कहें तो, भागवत ने स्वीकार किया कि वर्तमान में, मुस्लिम प्रजनन दर भी अन्य समुदायों की तरह गिर रही है, और तेज़ी से गिर रही है, लेकिन वह आरएसएस सदस्यों के मन में बैठाए गए गहरे और निराधार भय को दूर करने में असमर्थ थे कि मुसलमान हिंदुओं से आगे निकल जाएँगे। घुसपैठ के सवाल पर, यह पूछा गया कि अगर “अखंड भारत” में रहने वाले सभी लोगों का “डीएनए” एक जैसा है — जैसा कि उन्होंने पहले दावा किया था — तो फिर प्रवासियों को क्यों रोका जाए? भागवत को इसका जवाब देने के लिए “देश के कानून की रक्षा” के सिद्धांत का सहारा लेना पड़ा और कहा कि उन्हें अवैध रूप से नहीं आना चाहिए। (याद रखें : काशी और मथुरा जैसे अन्य मामलों में, कानून की रक्षा करने की कोई ज़रूरत नहीं है!) बेशक, उन्होंने इस तथ्य पर कुछ नहीं कहा कि हाल ही में देश भर में दर्जनों जगहों पर बंगालियों को आरएसएस के दुष्प्रचार से प्रेरित लोगों द्वारा रोहिंग्या या बांग्लादेशी होने के नाम पर परेशान और प्रताड़ित किया गया है। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि मोदी सरकार द्वारा लाया गया नागरिकता संशोधन अधिनियम, मुस्लिमों को छोड़कर, पड़ोसी देशों से आने वाले सभी प्रवासियों को नागरिकता देने के काम में तेज़ी लाता है। भागवत इस सब के मुस्लिम-विरोधी स्वरूप पर पर्दा डालने की जो कोशिश कर रहे हैं, वह लगातार पर्दाफाश होता जा रहा है।
अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ हिंसा में आरएसएस कार्यकर्ताओं की संलिप्तता के बारे में पूछे जाने पर, भागवत ने कहा कि यह तथ्यात्मक रूप से गलत है, लेकिन उन्होंने यह कहकर इसमें सुधार किया कि अगर कुछ हिंदू “मानसिक संताप” के कारण इस तरह की हरकतें करते हैं, तो यह गलत है। इसलिए, स्वाभाविक रूप से हिंदू अपनी पीड़ा या क्रोध का प्रदर्शन कर सकते हैं और मस्जिदों को ध्वस्त करके या गोमांस खाने की किसी निराधार अफवाह के आधार पर, मॉब लिंचिंग जैसी अन्य पाशविक हिंसा में लिप्त होकर इसे व्यक्त करते हैं – तो इसे आरएसएस द्वारा बस एक करारा तमाचा ही मानना चाहिए। संयोग से, मांसाहार के बारे में एक सवाल पर भागवत ने कहा कि कोई क्या खाता है, उससे किसी को आहत नहीं होना चाहिए, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि “ज़रूरत इस बात की है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करें ; तब कानून को हस्तक्षेप करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी”। इसका मतलब है कि मुसलमानों को तथाकथित हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए – अन्यथा कानून-व्यवस्था का मुद्दा पैदा हो जाएगा।
यह विशिष्ट मुद्दों पर आरएसएस की सोच को शामिल करने का एक और उदाहरण है, जबकि वे यह भी दावा करते हैं कि आरएसएस समावेशिता का समर्थन करता है और किसी के प्रति असहिष्णुता नहीं रखता। शिक्षा के बारे में पूछे जाने पर, उन्होंने कहा कि शिक्षा का उद्देश्य “मूल्यों का पोषण करना और व्यक्ति को सच्चा मानव बनाना है। हर जगह, हमारे (अर्थात हिंदू) मूल्य और संस्कृति सिखाई जानी चाहिए…चाहे मिशनरी स्कूल हों या मदरसे।” इसलिए, ‘मूल्यों’ और ‘मानवता’ के नाम पर जो पढ़ाया जाएगा, वह हिंदू ‘संस्कृति’ है। उन्होंने इसी राह पर चलने के लिए मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति की सराहना की।
इस तरह, भागवत के विचारों ने स्वयं ही सच्चाई उजागर कर दी है – ‘धर्म’ और देशप्रेम आदि की सारी बड़ी-बड़ी बातें सिर्फ़ खोखली बातें थीं – कटु सत्य यह है कि आरएसएस अपने सदियों पुराने उस एजेंडे को आगे बढ़ाता रहेगा, जो राष्ट्र, आस्था और जनता के बारे में उसकी मध्ययुगीन और प्रतिगामी समझ पर आधारित है। ये बड़ी-बड़ी बातें सिर्फ़ आलोचनाओं को शांत करने और ज़्यादा भोले-भाले लोगों को मूर्ख बनाने के लिए थीं। लेकिन इससे भी ज़्यादा बड़ी बातें हैं, जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
*अनसुलझी दुविधाएँ*
जाति व्यवस्था एक सबसे बड़ी पहेली है, जिसे न तो भागवत और न ही उनके पूर्ववर्ती सुलझा पाए हैं। यह एक अनसुलझी समस्या क्यों है और आरएसएस नेता अक्सर इसमें उलझते और रास्ता तलाशते क्यों दिखाई देते हैं?
आरएसएस का उद्देश्य हिंदुओं को एकजुट करना, उनमें “आत्मविश्वास” की भावना जगाना और एक ऐसे समाज का निर्माण करना है, जो प्राचीन हिंदू सिद्धांतों, जिन्हें सनातन धर्म भी कहा जाता है, पर आधारित हो। बहरहाल, वास्तविक जीवन में, यह जातियों और उपजातियों के उस निराशाजनक विभाजन से टकराता है, जो हिंदू समाज व्याप्त है। आरएसएस ने दोनों नावों पर सवार होने की निरर्थक कोशिश की है और लगातार असफल रहा है। अगर कोई सांप्रदायिक मुद्दा है, तो वे किसी क्षेत्र में किसी प्रकार की एकता बनाने में सफल हो सकते हैं, आमतौर पर इस मुद्दे के जोखिम भरे काम तथाकथित निचली जातियों के लिए छोड़ दिए जाते हैं। लेकिन अचानक जातिगत भेदभाव का मुद्दा उभर आता है — ऐसा होना ही है — और यह एकता हवा में उड़ जाती है ; सामाजिक समूह आपस में भिड़ जाते हैं। मोदी और भाजपा के सत्ता में आने के साथ, भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन का वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए विभिन्न जाति-आधारित दलों के नेताओं को आगे बढ़ाने पर निर्भरता बढ़ रही है। वास्तव में, भागवत ने स्वयं इसे विभिन्न जातियों के नेताओं को उभरने के लिए प्रोत्साहित करने के एक तरीके के रूप में सराहा है। लेकिन हमेशा, ये जातिगत गठबंधन हिंदू वर्चस्व के आरएसएस समर्थित उद्देश्य के पीछे लामबंद नहीं पाते। वैचारिक रूप से, आरएसएस नेता अक्सर दो ध्रुवों के बीच झूलते रहते हैं — उदाहरण के लिए, कभी आरक्षण की आलोचना करते हैं, और फिर कई महीनों तक उसके विरोध में लड़ते रहते हैं।
यह विरोधाभास इसलिए और भी गहरा हो जाता है, क्योंकि आरएसएस के पास जाति-आधारित भेदभाव का कोई ठोस जवाब नहीं है। वह अब भी यही मानता है कि शुरू में ‘वर्ण व्यवस्था’ श्रम के स्वाभाविक विभाजन के रूप में उत्पन्न हुई थी और यह समाज के लिए मददगार थी। उनके अनुसार, समय के साथ इसमें विकृतियाँ पैदा हुईं। उसने अभी तक इस कटु सत्य को स्वीकार नहीं किया है कि वर्ण व्यवस्था वस्तुतः गुलामी और बर्बर उत्पीड़न की एक व्यवस्था थी, जो शोषण, हिंसा और उत्पीड़न पर आधारित थी। शुद्धता की अवधारणाएँ और उसके उल्लंघन अंतर्निहित थे। जातिगत उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष का उद्देश्य व्यवस्था में सुधार नहीं, बल्कि व्यवस्था का विनाश होना चाहिए। किसी दलित के घर कभी-कभार भोजन कर लेना या किसी दलित व्यक्ति से एक गिलास पानी ले लेना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह एक भटकाव है, एक चालाकी है। आरएसएस कभी भी जाति-विनाश की माँग नहीं करता, वह कभी जातिगत अत्याचारों के विरुद्ध मुखर नहीं होता, उसकी सरकारें अनुसूचित जाति/जनजाति समुदायों के लिए आबंटित धन भी खर्च नहीं करतीं। इसलिए, वह दलितों को कभी अपने पाले में नहीं ला पाएगा।
इसलिए, जातिगत पूर्वाग्रहों को स्वीकार न करने और उनसे लड़ने की ज़रूरत के बारे में भागवत के दावे, और संघ की उसी के प्रति प्रतिबद्धता, सब बेकार की और ध्यान भटकाने वाली बातें हैं। असल ज़िंदगी में, आरएसएस आज भी एक उच्च जाति के संगठन के रूप में ही व्यवहार करता देखा जाता है। यह संदेह इतना गहरा है – और वास्तविकता में इतनी जमीनी हकीकत है – कि 2024 के चुनावों में भाजपा/आरएसएस द्वारा संवैधानिक बदलावों की बात करने के प्रयासों को भी मतदाताओं ने नकार दिया, क्योंकि इसे संविधान के संस्थापक बाबासाहेब आंबेडकर का अपमान माना गया।
व्याख्यानों में व्यक्त भागवत के विचार 21वीं सदी में भारत के सामने मौजूद चुनौतियों के अनुरूप नहीं हैं। उनके पास बेरोज़गारी जैसी आर्थिक समस्याओं के बेहद सरल (उद्यमी बनने के लिए कड़ी मेहनत) समाधान हैं, और वे इस बात से आंख मूंद हुए है कि उनके सहयोगी मोदी ने देश की आर्थिक संप्रभुता को बहुराष्ट्रीय पूंजी के हाथों किस हद तक खतरे में डाल दिया है। जब देश विदेशी पूंजी और उसके घरेलू पिट्ठुओं के हाथों धक्के खा रहा हो, तो स्वदेशी और आत्मनिर्भरता जैसे शब्द महज दिखावा हैं। उनके सामाजिक विचार, जैसे कि यह कहना कि हर भारतीय हिंदू है, ज़्यादा से ज़्यादा हास्यास्पद हैं, और भविष्य के लिए एक बुरे सपने का संकेत हो सकते हैं।
✒️आलेख:-सवेरा,अनुवाद:-संजय पराते(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)



