संघ के सौ बरस का इकलौता हासिल

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दो दिनों में फैले आरएसएस के शताब्दी वर्ष के केंद्रीय आयोजनों ने जितने बलपूर्वक उसके बुनियादी तौर पर एक राजनीतिक संगठन और वर्तमान सत्ता की राजनीति करने वाला संगठन होने की सचाई को उजागर किया है, उतने बलपूर्वक दूसरे किसी घटनाक्रम ने नहीं किया होगा। पहले दिन, 1 अक्टूबर को नरेंद्र मोदी ने, आरएसएस के वफादार स्वयंसेवक और धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक गणराज्य के प्रधानमंत्री के बीच का अंतर पूरी तरह से मिटाते हुए, आरएसएस के सौ वर्ष पूरे होने के मौकेे पर विशेष डाक टिकट तथा सौ रुपये का विशेष सिक्का जारी करने के जरिए और इस मौके पर अपने विस्तृत संबोधन से यह काम किया। और दूसरे दिन, 2 अक्टूबर को आरएसएस के सरसंघचालक, मोहन भागवत ने अपने सालाना दशहरा संबोधन में, इस समय की अपनी सबसे बड़ी चिंता को स्वर देते हुए, वही काम किया। कहने की जरूरत नहीं है कि आरएसएस के प्रचार की असली धुरी, उसका यह बड़ा झूठ रहा है कि वह तो राजनीति से निरपेक्ष रहकर, राष्ट्र की सेवा करने वाला संगठन है! 

पहले दिन, प्रधानमंत्री ने आरएसएस के लिए एक विस्तृत प्रशस्ति पत्र पढ़ने के साथ, उसके 100 वर्ष होने के उत्सव के रूप में 100 रुपये का विशेष सिक्का जारी किया। बेशक, यह पहली बार नहीं था जबकि इस तरह विशेष सिक्का जारी किया जा रहा था। दुर्लभ ही सही, ऐसे मौके पहले भी आए हैं, जिनके सेलिब्रेशन के तौर पर विशेष सिक्के जारी किए गए हैं। फिर भी, इस सिक्के के जारी किए जाने में कुछ ऐसा था, जो पहली बार किया जा रहा था। और यह कितने सुचिंतित तरीके से किया जा रहा था, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में, इसके पहले स्वतंत्र भारत में पहली ही बार किये जाने को अलग से रेखांकित करना जरूरी समझा। और जो पहली बार किया जा रहा था, वह था सरकार द्वारा जारी इस सिक्के पर, जहां एक तरफ राष्ट्र चिन्ह, अशोक स्तंभ उकेरा गया है, वहीं दूसरी ओर, एक समानांतर राष्ट्र चिन्ह के रूप में, तथाकथित ”भारत माता” का चित्र उकेरा गया है। 

पुन: यह कथित भारत माता, हाथ में भारत के राष्ट्रध्वज के बजाए, आम तौर पर हिंदू धार्मिक परंपराओं और मंदिरों से जुड़ा हुआ, बीच में कटाववाला मुखर रूप से हिंदू-ध्वज लिए हुए है। और चित्र में आरएसएस की पहचान कराने वाली वेशभूषा में तीन स्वयंसेवक, इस हिंदू ध्वजाधारी भारत माता को आरएसएस का खास हस्त प्रणाम कर रहे हैं, जो वास्तव में विदेशी नाजी परंपराओं से आया है। यह पूरा का पूरा चित्र, स्पष्ट रूप से दिखाता है कि जिस आरएसएस के 100 साल होने का उत्सव, एक सरकारी आयोजन के जरिए भारत के प्रधानमंत्री मना रहे थे, वास्तविक भारतीय राष्ट्रीय चिन्हों को नकार कर, उनकी जगह वैकल्पिक बहुसंख्यक-धार्मिक परंपरा के और वास्तव में बहिष्करणवादी चिन्हों को, राष्ट्रीय चिन्हों के रूप में स्थापित करने का एक सचेत प्रोजैक्ट है। यह दूसरी बात है कि इस सचाई को पेश करते हुए भी, इस पर राष्ट्रवाद का पर्दा डालने की कोशिश भी की जाती है और संस्कृत में कथित रूप से आरएसएस का आप्त वाक्य भी इस चित्र के साथ डाल दिया जाता है — सब राष्ट्र का, मेरा कुछ नहीं। 

यहां यह याद दिलाना अप्रासांगिक नहीं होगा कि भारत माता की आरएसएस की उक्त संकल्पना, जिसे अब एक ही झटके में स्वयंसेवक प्रधानमंत्री द्वारा देश की सरकारी मुद्रा पर बैठा दिया गया है, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ऐतिहासिक रूप से उभर कर आयी, भारत माता की ही संकल्पना से न सिर्फ सचेत रूप से भिन्न है, बल्कि उसके समानांतर गढ़ी गयी है। यह एक जाना-माना तथ्य है कि भारत माता की संकल्पना पहले-पहल, अवनींद्रनाथ टैगोर ने एक चित्र रूप में पेश की थी। लेकिन, अवनींद्र नाथ की कल्पना की भारत माता वास्तव में ‘भारत माता ग्राम वासिनी’ थी — अपने रूप, भाव और सज्जा में, देवियों की तमाम हिंदू संकल्पनाओं से बहुत भिन्न। इस भारत माता का वेष एक साध्वी का है, जिसके पीछे बंकिम चंद्र चैटर्जी की रचना, आनंद मठ की प्रेरणा मानी जाती है। चार हाथ वाली इस भारत माता के एक हाथ में, भारत की कृषि प्रधानता को रेखांकित करते हुए, धान का एक छोटा सा गट्ठर भी दिया गया था। शेष तीन हाथों में एक में अगर रुद्राक्ष माला है, तो एक हाथ में पोथी है और तीसरे हाथ में कपड़े का टुकड़ा है। वास्तव में यह भारत माता भी मूल रूप में ‘बंग माता’ थी, जिसे जन स्वीकृति ने ‘भारत माता’ के आसन तक पहुंचाया था। इसके बरक्स आरएसएस लंबे अर्से से, एक शेर की सवारी करने वाली देवी की, लोक जीवन से बहुत दूर की कल्पना को, ‘भारत माता’ की संकल्पना के रूप में स्थापित करने में लगा हुआ था। 

और अब स्वयंसेवक के प्रधानमंत्री होने के बल पर, कम से कम समारोही सरकारी सिक्के में तो, इसे स्थापित करने में कामयाब भी हो गया है। और उसी वृहत्तर प्रोजैक्ट के हिस्से के तौर पर, राजसत्ता तक पहुंच हासिल होने के 100 साल के इसी हासिल के बल पर, इसी मौके पर जारी किए गए डाक टिकट के जरिए, स्वतंत्र भारत की जानी-मानी वास्तविकता से अलग, एक समानांतर इतिहास रचने का प्रयास भी किया गया है। डाक टिकट पर प्रकाशित चित्र में 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में, अपनी पहचान कराने वाली पोशाक में ही, आरएसएस के स्वयंसेवकों को परेड करते दिखाया गया है। यह चुनाव भी कितने सचेत रूप से किया गया, इसका अंदाजा भी इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में, इस चित्र की कथा की ओर विशेष रूप से ध्यान खींचा है, ताकि इस चित्र को आधिकारिक राष्ट्रीय जीवन में आरएसएस की स्वीकार्यता का अकाट्य साक्ष्य बनाया जा सके। 

यह इसके बावजूद है कि इसी सिलसिले में आरएसएस द्वारा समय-समय पर किए जाते रहे दावों को चुनौती देते हुए, ये तथ्य प्रमाणों के साथ सामने आ चुके हैं कि भारत-चीन सीमा झड़प के समय आरएसएस की किसी भूमिका को देखते हुए, जवाहरहाल नेहरू द्वारा आरएसएस को 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए आमंत्रित किये जाने का दावा, कोरी गप्प है। इसके बरक्स, सचाई यह है कि 1963 की गणतंत्र दिवस परेड, एक सैनिक परेड के बजाए मूलत: एक जन परेड के रूप में आयोजित की गयी थी, जिसमें आम जनता को भागीदारी के लिए आमंत्रित किया गया था और एक लाख से ज्यादा लोग शामिल भी हुए थे। अलबत्ता इस मौके का बेनिफिट लेते हुए, आरएसएस ने संगठित तरीके से अपने कार्यकर्ताओं को अपनी खास पोशाक में इसमें हिस्सा लेने के लिए कहा था, जबकि सरकार ने भी जनता को आम नियंत्रण देने के बाद, किसी को भी रोकने की जरूरत नहीं समझी। जाहिर कि संघ की राष्ट्रीय स्वीकार्यता का यह झूठ भी, अब केंद्र में सत्ता पर नियंत्रण के जरिए, सरकारी डाक टिकट के जरिए, देश से मनवाने की कोशिश की जा रही है। 

इस मौके पर प्रधानमंत्री के संबोधन में आरएसएस का विरुद गायन करने के लिए, जिस तरह लगातार और बार-बार शुद्ध झूठ का सहारा लिया गया है, उसके ब्यौरे में जाना इस टिप्पणी में हमारे लिए संभव नहीं है। यहां इतना कहना ही काफी होगा कि उनके संघ के संबंध में झूठे दावों की सूची बनाने बैठें, तो पूरा लेख उसी में खत्म हो जाएगा। यहां हम सिर्फ इतना ध्यान दिलाना चाहेंगे कि 15 अगस्त के लाल किले के अपने संबोधन ने प्रधानमंत्री ने, आरएसएस का सरासर झूठा महिमा मंडन करने के लिए, इतिहास को साफ तौर पर तोड़ने-मरोड़ने की जो शुरूआत की थी, उसे अब उन्होंने उत्कर्ष पर पहुंचा दिया है। यह तोड़-मरोड़ 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में आरएसएस की मौजूदगी की दुर्व्याख्या तक ही सीमित नहीं रहती है। उसमें स्वतंत्रता आंदोलन में आरएसएस की ‘भूमिका’ के झूठे अतिरंजित दावों से लेकर, आरएसएस के ‘सामाजिक समरसता’ के पाखंड को उधार की विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए, गांधी से लेकर डा. आंबेडकर तक के मुंह से आरएसएस की प्रशंसा कराने तक के झूठ शामिल हैं। और इसमें स्वतंत्र भारत में पचहत्तर साल में आरएसएस की भूमिका को लेकर झूठ भी, जिसमें महात्मा गांधी की हत्या से लेकर, बाबरी मस्जिद के ध्वंस तक, अक्षम्य करतूतों के सिलसिले में आरएसएस पर स्वतंत्र भारत में लगायी गयी पाबंदियों को उस पर ‘राजनीतिक अत्याचार’ बताने का महाझूठ भी। और यह सिलसिला, आरएसएस के नंबर बढ़ाने के लिए, इतने हाल के इतिहास को नंगई से झुठलाने की हद तक जाता है कि ‘आज भी पंजाब में बाढ़, हिमाचल तथा उत्तराखंड में तबाही तथा केरल में वायनाड में त्रासदी जैसी आपदाओं में स्वयंसेवक सबसे पहले मदद के लिए पहुंंचने वालों में थे।’ लेकिन, मीडिया की खबरों के मुताबिक भी सचाई यह है कि एकदम हाल की इन आपदाओं में से किसी में भी, आरएसएस कहीं दिखाई तक नहीं दिया है। झूठे प्रचार के बल पर, झूठ को सच और सच को झूठ बनाने में संघ और उसके स्वयंसेवकों के हिटलरी भरोसे का कोई ओर-छोर ही नहीं है। 

और दूसरे दिन, आरएसएस सरसंघचालक भागवत, न सिर्फ ऑपरेशन सिंदूर समेत, हर क्षेत्र में मोदी सरकार को कामयाबी के सार्टिफिकेट देकर और युवाओं तक के मामले में उसकी कारगुजारियों पर संतोष जताकर, मोदी शासन से अपनी अभिन्नता का तथा अपनी राजनीतिक वचनबद्घता का प्रमाण देते हैं, वह श्रीलंका, बांग्लादेश तथा नेपाल के हाल के घटनाविकास से वह बहुत ही चिंतित भी नजर आते हैं। ”श्रीलंका में, बांग्लादेश में और हाल ही में नेपाल में जिस प्रकार जन-आक्रोश का हिंसक उद्रेक होकर सत्ता का परिवर्तन हुआ है, वह हमारे लिए चिंताजनक है।” अपने स्तर पर भागवत इशारों में वर्तमान शासन को आगाह भी करते नजर आते हैं कि, ”शासन प्रशासन का समाज से टूटा हुआ संबंध, चुस्त तथा लोकाभिमुख प्रशासकीय क्रिया कलापों का अभाव, यह असंतोष के स्वाभाविक तथा तत्कालिक कारण होते हैं।” फिर भी षडयंत्र का डर दिखाने का आसान रास्ता लेते हैं: ”अपने देश में तथा दुनिया में भी, भारतवर्ष में इस तरह के उपद्रवों को चाहने वाली शक्तियां सक्रिय हैं।” और इसके बाद फौरन, इस तरह के संभावित खतरों का मुकाबला करने के लिए अपनी वैचारिक तलवार लेकर कूद पड़ते हैं:”हिंसक उद्र्रेेक में वांछित परिवर्तन लाने की शक्ति नहीं होती। प्रजातांत्रिक मार्गों से ही समाज ऐसे अमूलाग्र परिवर्तन ला सकता है।” साफ है कि आरएसएस, जिसकी हमेशा से राजसत्ता पर ही नजर लगी हुई थी, सौ साल के हासिल के रूप में राजसत्ता तक अपनी पहुंच सेे जहां गदगद् है, वहीं इस हासिल के हाथ से फिसल जाने के खतरे से डरा भी हुआ है। झूठ पर खड़े उसके साम्राज्य के पांव जो नहीं हैं।

✒️आलेख:-राजेंद्र शर्मा(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)