क्या फांसी तक गोडसे का आरएसएस से जुड़ाव था?

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पाठकों को याद होगा, कोई दशक भर पहले 2014 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के राजेश कुंटे ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को इस आरोप में भिवंडी (महाराष्ट्र) के एक मजिस्ट्रेट की अदालत में घसीट लिया था कि सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में प्रचार के दौरान एक सभा में उन्होंने यह कहकर आरएसएस की आपराधिक मानहानि की कि उसके लोगों ने महात्मा गांधी की हत्या की थी।

लेकिन अभी कुछ दिन पहले बाम्बे हाईकोर्ट ने पाया कि कुंटे अपने समग्र आचरण से इस मामले को अनावश्यक रूप से लंबा खींच रहे हैं। इससे पहले 2018 में मजिस्ट्रेट की अदालत ने कुंटे की मामले की कार्रवाई स्थगित करने की मांग को लेकर उन पर 1,000 रुपये का जुुर्माना भी लगाया था।

ऐसे में क्या आश्चर्य कि कई जानकार मानते हैं कि महात्मा की हत्या में खुद को पाक-साफ ठहराने के लिए इस एक संदिग्ध तथ्य, कि हत्यारे नाथूराम गोड़से (आधिकारिक नाम: रामचन्द्र विनायक गोड़से) ने उनकी हत्या से पहले आरएसएस छोड़ दिया था, की आड़ लेते आ रहे आरएसएस का राहुल के उक्त आरोप पर कोई प्रतिक्रिया न देना ही बेहतर था, क्योंकि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी — डेढ़ साल के उस प्रतिबंध तक भी, जो महात्मा गांधी की हत्या के बाद उस पर लगा था।

*बढ़ती मुश्किल*

आरएसएस का दुर्भाग्य कि इस बीच वरिष्ठ पत्रकार धीरेन्द्र के. झा ने ‘पेंग्विन’ से प्रकाशित अपनी बहुचर्चित अंग्रेजी पुस्तक ‘गांधीज़ असैसिन : द मेकिंग ऑफ नाथूराम गोडसे एंड हिज़ आइडिया ऑफ इंडिया’ में महात्मा की हत्या के जानबूूझकर दफन कर दिए गए तथ्यों की बिना पर जो नई जानकारियां दी हैं, उनकी रोशनी में उसका इससे इनकार करना बहुत मुश्किल हो गया है कि गोड़से ने महात्मा की हत्या ही नहीं की, अपनी फांसी के दिन तक भी आरएसएस नहीं छोड़ा था और निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए यह गप जानबूझकर फैलाई गई है।

हाल ही में जिल्द बुक्स (605 बी, रायल, शिप्रा सन सिटी, इंदिरापुरम, जिला: गाजियाबाद) ने झा की इस पुस्तक का ‘गांधी का हत्यारा गोड़से (नाथूराम की जिंदगी और उसके सपनों का भारत)’ नाम से निधीश त्यागी व अशोक झा द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है, जिसमें अनुवादकों ने लिखा है कि यह किताब गोड़से और आरएसएस के रिश्ते के ताने-बाने, निरंतरता, प्रभाव, योगदान, विमर्श और प्रेरणा वगैरह की वे सारी तहें खोल देती है, जो गोड़से व सावरकर के रिश्तों के साथ सावरकर व आरएसएस के रिश्तों व बहुत से अन्य चरित्रों के बीच फैली हुई हैं।

गहन खोजबीन और शोध से हासिल तथ्यों पर आधारित अठारह अध्यायों में विभाजित इस गैर-औपन्यासिक कृति को झा ने ऐसी कथात्मक शैली में लिखा है कि पढ़ते हुए लगता है कि सब कुछ उनकी आंखों के सामने ही घटित हुआ। अकारण नहीं कि इसे नाथूराम की मनोवैज्ञानिक जीवनी की भी संज्ञा दी जा रही है।

लेकिन पूरा सच संभवतः अनुवादकों के इस निष्कर्ष में है कि यह ‘सत्यकथा’ या ‘मनोहर कहानियां’ की तर्ज पर लिखा गया अपराध का रिपोर्ताज भर नहीं, उससे आगे की चीज है, जिसमें गोड़से की जिंदगी, उसकी दुनिया, उसके आसपास, उसके रिश्ते, मुहल्ले, उसकी हीन भावनाओं, उसकी फंतासियों, उसे इस्तेमाल करने वाले चरित्रों, उसका मानस बनाने व दिशा तय करने वाले लोगों, तत्वों व प्रभावों के बारे में खासी सजगता से पता लगाया गया है — अरसे से अनसुलझी व उपेक्षित पड़ी गुत्थियों को खोलते हुए।

झा की इस पड़ताल का निष्कर्ष है कि गोड़से अपने आप में और बतौर व्यक्ति एक इस्तेमाल में आ सकने वाले बेवकूफ से ज्यादा कुछ नहीं था। पुस्तक की भूमिका में इसी की ताईद करते हुए वरिष्ठ लेखक व विश्लेषक अपूर्वानंद ने बाबा नागार्जुन की यह बात याद दिलाई हैं कि गोड़से कोई पागल हिंदू नहीं था। वह स्थिर स्वार्थों का प्रहरी था और ये स्थिर स्वार्थ उन राजे-रजवाड़ों के थे, जो अंग्रेजों के जाने के बाद भारत में जनतंत्र की जगह पेशवाई (हिंदू राष्ट्र) की बहाली के सपने देख रहे थे और जिनके साथ आरएसएस, हिंदू महासभा और सावरकर जैसे लोग काम कर रहे थे।

*मायूसी और उदासी*

दस्तावेजों के हवाले से धीरेन्द्र झा का दावा है कि इन सबने मिलकर नाथूराम का इस्तेमाल किया और उसके इस खब्त के साथ अकेला छोड़ दिया कि अगर वह महात्मा की हत्या की जिम्मेदारी अकेले अपने ऊपर ले लेगा, तो ‘अपनी सभी तकलीफों के लिए गांधी को जिम्मेदार मानने वाले लोगों’ का सबसे बड़ा ‘हीरो’ बन जाएगा। लेकिन उसकी इस दुराशा के विपरीत हिंदुओं व सिखों, विशेषकर शरणार्थियों में, उसके कुकृत्य के समर्थन में किसी लहर का नामो निशान तक नहीं दिखा, उल्टे जनभावना ने उसके, ब्रह्मा के मस्तिष्क से आने का दावा करने वाली उसकी अभिजात ब्राह्मण बिरादरी और आरएसएस के खिलाफ व्यापक गुस्से व घृणा का हिंसक ज्वार पैदा कर दिया, तो बकौल झा “गांधी की हत्या के चौबीस घंटे बाद गोड़से मायूसी की हद तक उदासी में डूब गया था।”

इतना ही नहीं, जिन विनायक दामोदर सावरकर की चेलाही ने उसे हिंदुत्व का उत्साही समर्थक बनाया, जो उसके परिवार व पिता के दबाव के बीच ‘कांग्रेस के नेतृत्व में विरोधसभाओं में शामिल होने से विरत कर’ उसे एक अलग ही रास्ते पर ले गए, उसकी जिंदगी का सांचा बनाया और जिन्हें वह पितातुल्य मानता था, उनकी ओर से मिली बेरुखी ने भी उसकी उदासी को बढ़ाया ही।

*गलती के दबाव में*

पुस्तक बताती है कि महात्मा पर गोली चलाते वक्त नाथूराम ‘गलती से’ अपनी जेब में एक डायरी रखे रह गया था, जिसमें लिखे विवरणों को हत्या की मंशा के रूप में उसके सभी आरोपियों के खिलाफ सबूत माना जा रहा था. इस ‘गलती’ को लेकर उसे अपने साथियों (सह-आरोपियों) की कटु आलोचना सहनी पड़ रही थी और वे उसके खिलाफ हो गए थे। यह स्थिति बहुत सताने लगी, तो उसे लगा कि उसका महात्मा की हत्या के किसी भी तरह के षड्यंत्र के अस्तित्व से साफ इनकार कर देना ही बेहतर होगा। इससे उसकी ‘गलती’ भी सुधर जाएगी और उसके ‘यश’ (पढ़िए: अपयश) में कोई हिस्सेदार भी नहीं होगा।

इसी दबाव में उसने महात्मा की हत्या के नौ महीने बाद आठ नवंबर, 1948 को अदालत में वकीलों की मदद से ‘हिंदुत्व के हीरो’ की अपनी आत्मछवि के अनुकूल अंग्रेजी में लिखा नपा-तुला बयान देकर अभियोजन के इस आरोप को तो नकार ही दिया कि वह सावरकर के दिशा-निर्देश में काम कर रहा था, यह भी कह दिया कि वह काफी पहले आरएसएस से अलग हो गया था।

उसका यह बयान जांचकर्ताओं के समक्ष दिए गए उसके पूर्व के बयान और आरएसएस के नागपुर स्थित मुख्यालय से जब्त दस्तावेजों के ब्यौरे के सर्वथा उलट था और अरसे बाद यह देखकर कि आरएसएस ने बड़ी बेशर्मी से गोड़से का साथ छोड़ दिया, उसके छोटे भाई गोपाल गोड़से ने भी कहा था कि उसने (नाथूराम ने) कभी आरएसएस नहीं छोड़ा। आरएसएस छोड़ देने वाली बात तो उसने इसलिए कही थी, क्योंकि महात्मा की हत्या के बाद आरएसएस और उसके सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था।

गौरतलब है कि 10 फरवरी, 1948 को सुुनाए गए फैसले में अदालत ने गोड़से के इस बयान के ज्यादातर हिस्सों पर विश्वास नहीं किया — खासकर उसके इस दावे पर कि हत्या का कोई षड्यंत्र नहीं रचा गया था और वह पूरी तरह एकमात्र उसकी बुद्धि व फैसले की उपज थी। अदालत ने माना कि षड्यंत्र रचा गया था, जो जनवरी, 1948 की शुरुआत में शुरू हुआ और 30 जनवरी, 1948 तक जारी रहा।

*फरेब और प्रपंच*

पुस्तक के अंत में झा ने सवाल उठाया है कि हत्यारे के जिस बयान को अदालत द्वारा कतई भाव नहीं दिया गया, उसको इतिहास के एक विश्वस्त स्रोत जैसा महत्व देने का क्या तुक है? जो दृश्य और संवाद उसने इस बयान में गढ़े हैं, और अपनी जो झूठी छाप छोड़ने के लिए वह मरा जा रहा था, उसकी असल जिंदगी को छोड़ उसे ज्यादा ऐतिहासिक तथ्य क्यों माना जाता है?

उन्हीं के अनुसार, इसलिए कि आरएसएस से सहानुभूति रखने वाले लेखकों ने इस बयान की बिना पर लगातार ऐसा फरेब गढ़ा, जिससे लगे कि गांधी के हत्यारे और आरएसएस के बीच कोई रिश्ता था ही नहीं। इन लेखकों ने इतिहास का जो प्रपंच रचा, धीरे-धीरे उसे ही आमतौर पर स्वीकृत तथ्य मान लिया गया — उन आवाजों को दबाते हुए, जो गोड़से के अदालती बयान और उसकी असल जिंदगी के विरोधाभाषों पर सवाल उठा रही थीं।

झा लिखते हैं कि इसी प्रपंच के तहत आरएसएस और हिंदू महासभा के बीच मतभेद व अलगाव की बात भी प्रचारित की गई, जबकि कई दस्तावेजी सबूत कहते हैं कि दोनों के रिश्ते हमेशा नजदीकी रहे। गांधी की हत्या तक उनके बहुत से सदस्यों की दोनों संगठनों में दोहरी सदस्यता आम थी।

झा ने ‘नेशनल आर्काइव्ज ऑफ इंडिया’ से नाथूराम द्वारा अदालत में दिए इस बयान से आठ महीने पहले मार्च, 1948 के पहले हफ्ते का मराठी में दिया गया 93 पृष्ठों का प्री-ट्रायल बयान भी ढूंढ निकाला और लिखा है कि पत्रकारों और शोधकर्ताओं की कई पीढ़ियों ने उसे नजरअंदाज किया है। उनके मुताबिक हत्यारे की जिंदगी के बारे में बारीक व अहम जानकारियों वाले इस बयान में कहीं नहीं लिखा कि हिंदू महासभा में शामिल होते वक्त उसने आरएसएस छोड़ दिया था। इसके विपरीत इससे पता चलता है कि वह एक साथ दोनों संगठनों के लिए काम कर रहा था। अदालती बयान के विपरीत यह बयान उस पूरी सच्चाई से मेल खाता है, जो उस समय के आर्काइव्ज में इकट्ठा है।

तत्कालीन इंटेलिजेंस एजेंसियों द्वारा आरएसएस मुख्यालय से जब्त कागजात की जांच के बाद तैयार की गई रपटें भी गोड़से के इस प्री-ट्रायल बयान की ही ताईद करती हैं

*दुरंगेपन की पहचान अब आसान*

अंत में पुस्तक के ‘प्राक्कथन’ का कुछ अंश : गोड़से की कार्रवाई के पीछे वही सांप्रदायिक राजनीति है, जो चालीस के दशक से पूरे देश में फैली और अगस्त, 1947 में विभाजन के बाद आजादी वाले साल में अपने शीर्ष पर पहुंच गई… पर गांधी को मारने की साजिश के पीछे सिर्फ इतना ही नहीं था। समय और परिस्थिति से पैदा हुई घटनाओं के अलावा इस बात की भी लड़ाई थी कि भारत की आत्मा पर किसका कब्जा होगा? सिर्फ हिंदुओं का या सभी भारतीयों का? यह एक नए राष्ट्र और राज्य को परिभाषित करने की हड़बड़ी में की गई कोशिश भी थी। इस प्रवृत्ति की जड़ें गहरी भी थीं और फैली हुई भी… गांधी की हत्या स्वतंत्र भारत में धर्मनिरपेक्षता को पटरी से उतारने के लिए की गई थी।

निस्संदेह, इस पुस्तक से आरएसएस के उस दुरंगेपन की पहचान अब बहुत आसान हो गई है, जिसके तहत कभी वह नाथूराम से पल्ला छुड़ाता दिखता है और कभी उसका ‘यशगान’ करने वाले स्वयंसेवकों व सांसदों की बिना पर अपना नया आइकाॅन बनाता हुआ।
*(आलेख : कृष्ण प्रताप सिंह)*
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)*