वे एक सप्ताह या महीना तो दूर की बात रही, शायद ही कोई पल क्षण ऐसा छोड़ते हैं, जब कहीं न कही, किसी न किसी नफरती एजेंडे को लेकर उन्माद उकसाने के लिए भड़काने वाला बयान न दें या ऐसा ही कोई काम न करें। इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय इनकी नवोदित सांसद कंगना राणावत बेहूदगी और असभ्यता की अपनी अब तक की सारी सीमा और रेखाओं को तोड़ते, ध्वस्त करते हुए देश के किसानों और उनके ऐतिहासिक आन्दोलन के बारे में घिनौनी भाषा में जहर उगल चुकी हैं। मध्यप्रदेश के संघप्रिय भाजपाई मुख्यमंत्री ‘इस देश में रहना है, तो वन्दे मातरम कहना होगा’ के नारे को नया रूप देते हुए ‘भारत में यदि रहना है, तो राम और कृष्ण की जय कहना होगा’ तक पहुंचा चुके हैं। उत्तरप्रदेश के योगी आदित्यनाथ ‘बंटेंगे, तो कटेंगे’ के युद्धघोष के साथ हर रोज कुछ पहले से ज्यादा कटु वचन उच्चार रहे हैं। जून में आये लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद से यह तीव्रता कुछ अधिक ही बढ़ी और उत्तरोत्तर बढ़ती दिख रही है। इन सब दावों और उनके पीछे छुपे इरादों के बारे में अलग से चर्चा जरूरी है। अभी धीरे-धीरे तीव्र हो रहे उस बुनियादी हमले पर नजर डालना ठीक होगा, जिसका मकसद इस तरह के कुप्रचार और झूठ में विश्वास करने के लायक समाज बनाना है ; और ऐसा हो सके इसके लिए शिक्षा और शिक्षा संस्थानों को कमजोर कर उन्हें अपने अनुकूल ढालना है।
दिल्ली में जेएनयू के छात्र-छात्राओं पर मोदी-शाह की पुलिस की लठियाई ने देश की इस आला यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के बुरे हालात सामने ला दिए। छात्रावासों की लगातार बदतर होती हालत, पढ़ने-लिखने की सुविधाओं सहित हर चीज में कटौती और कुलपति द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित छात्रसंघ को मान्यता देने से इनकार आदि मुद्दों को लेकर जेएनयू के विद्यार्थी लड़ रहे हैं, पुलिस उन्हें पीट रही है और इसी बीच सरकार द्वारा भेजी गयी कुलपति, सरकारी मदद में कटौती का बहाना बनाकर इस विश्वविद्यालय की संपत्तियों की सेल लगा रही है। लीज के नाम पर उन्हें खुर्द-बुर्द कर रही है – कुछ को सीधे-सीधे बेच रही है। अपने पहले कार्यकाल से ही मोदी और उनकी पूरी जुंडली जेएनयू के पीछे पड़ी हुई थी, दमन और आतंक, अनेक तरह के फेरबदल और बदलाव थोपने के बाद अब लगता है, उन्होंने इसे निबटाने की ही ठान ली है।
मामला सिर्फ जेएनयू का नहीं है – मसला सिर्फ पिछले कुछ समय से निशाने पर ली गयी एएमयू, जामिया या हैदराबाद यूनिवर्सिटी तक ही महदूद भी नहीं। उच्च शिक्षा के सारे केंद्र इस हमले की जद में हैं। असम के मुख्यमंत्री हेमंता विश्व शर्मा ने मेघालय की यूनिवर्सिटी ऑफ़ साईंस एंड टेक्नोलॉजी के खिलाफ युद्ध-सा ही छेड़ दिया है। इसके दरवाजे को मक्का जैसा गेट बताते हुए उन्होंने इस पर बाढ़ जिहाद तक का आरोप जड़ दिया। उनकी खोज है कि असम में जो भी बाढ़ आती है, वह री-भोई जिले में बनी इस यूनिवर्सिटी की वजह से ही आती है अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, भारतीय विश्वविद्यालय संघ और भारतीय बार कौंसिल द्वारा मान्यता प्राप्त, देश के 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक मानी जाने वाली इस यूनिवर्सिटी से उनकी चिढ़ की मुख्य वजह इसका उस फाउंडेशन द्वारा स्थापित किया जाना है, जिसके अगुआ का नाम महबूबुल हक है। मगर बात सिर्फ इतनी नहीं है ; निशाने पर सिर्फ शिक्षा संस्थान नहीं हैं, समूची शिक्षा ही है। वे ऊपर से प्रहार करके ही उसे ध्वस्त नहीं करना चाहते, नीचे से खोखला कर इसे सीखने – लर्निंग – के केन्द्रों को सीखा-सिखाया भुलाने – अनलर्निंग – के अड्डों में बदल देना चाहते हैं। जिस देश के संविधान में नागरिकों के कर्तव्यों में वैज्ञानिक रुझान पैदा करना और बाकियों में ऐसा ही रुझान विकसित करवाना शामिल है, उस देश में वे अज्ञानी और अन्धविश्वासी नागरिकों की खरपतवार उगाना चाहते हैं। नई शिक्षा नीति में माध्यमिक शिक्षा के बाद सोशल स्टडीज को पूरी तरह से हटाकर सिर्फ जिस विधा में आगे पढ़ना है, उन्हीं विषयों को रखकर अपने समाज और इतिहास और विरासत से पूरी तरह अनभिज्ञ रोबोट्स तैयार करने का प्रोजेक्ट लाने का मंसूबा वे पहले ही बना चुके हैं – इसे और आगे बढाते हुए अब बाकायदा अंधविश्वासों को पढ़ाने का काम भी शुरू कर दिया गया है। पिछले सप्ताह गुजरात प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय का उदघाटन करते हुए वहां के महामहिम राज्यपाल ने अपने भाषण में भावी वैज्ञानिकों को पारम्परिक ज्ञान को प्रोत्साहन देने की आड़ में गौमूत्र और गाय के गोबर को अपनी शोध की प्राथमिकताओं में लेने का उपदेश सुनाया। इसके पहले उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय, रायपुर के रविशंकर विश्वविद्यालय, वाराणसी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, तिरुपति की केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ और भोपाल के केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय में फलित ज्योतिष और वास्तु ज्योतिष के पाठ्यक्रम शुरू करके अंधविश्वासों का दीक्षांत महोत्सव आरम्भ किया जा चुका था। बीएचयू में छात्राओं के लिए ‘आदर्श बहू कैसे बनें’ का तीन महीने का डिप्लोमा कोर्स लाने का अभिनव प्रयोग उससे भी पहले अमल में लाया जा चुका था। अब इसे और नीचे ले जाने की धुन में दिल्ली की आठवीं कक्षा की नैतिक शिक्षा में वर्णाश्रम का महिमागान जोड़ दिया गया है।
आर एस एस “लेखकों” की 88 किताबें मध्यप्रदेश के कोर्स में शामिल करके बतरा का खतरा अब हर छोटे-बड़े स्कूल की नीचे-ऊपर की कक्षाओं में पधरा दिया गया है, अज्ञान और कुंठा, नफरत और जुगुप्सा का अज्ञान अब मध्यप्रदेश के स्कूल-कालेजों की पढाई का हिस्सा होगा। प्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग ने जिन नयी किताबों को शामिल करने का आदेश दिया है, उनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लेखकों की 88 किताबें शामिल हैं। इनमें से 14 किताबें तो अकेले संघी शिक्षाविद माने जाने वाले दीनानाथ बतरा की लिखी हुई हैं। ये बतरा साहब वही हैं, जिन्होंने पूरी शिक्षा प्रणाली को ही कथित भारतीय परम्परा के अनुकूल ढालने और उसे मनु सम्मत बनाने के अनेक उपक्रम किये हैं और ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया है, जो भारतीय समाज के विकास की अब तक की सारी व्याख्या और विश्लेषण को धिक्कारता है और उसे साम्प्रदायिक और वर्णाश्रमी नजरिए से देखता-दिखाता है। ध्यान रहे ये बतरा वे ही हैं, जिन्होंने पंजाब सरकार से अवतार सिंह पाश की प्रसिद्ध कविता “सबसे खतरनाक है मुर्दा शांति से भर जाना” हटाने को कहा था। बतरा अकेले नहीं है, उनके अलावा जिन आरएसएस “लेखकों” की किताबें कोर्स में शामिल की गयी हैं, उनमें सुरेश सोनी, डी अतुल्कोथारी, देवेन्द्र राव देशमुख आदि शामिल हैं। ये सभी संघ की विद्या भारती से जुड़े हैं। सारे शिक्षा संस्थानों को तुरंत इन किताबों को खरीदने का आदेश भी दिया है।
इससे पहले जून में इसी प्रदेश के मुख्यमंत्री, जो इसके पहले उच्च शिक्षा मंत्री भी रहे हैं, को अचानक राम और कृष्ण को पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाने की सूझी थी। अभी हाल ही में, जिस तुलना की न कोई आवश्यकता थी न तुक, उसे करते हुए उन्होंने कालिदास और शेक्सपीयर पर अपना ज्ञान बघारा है। उन्होंने कहा है कि शेक्सपीयर कालिदास के मुकाबले कुछ भी नहीं हैं, कालिदास उनसे ज्यादा बड़े हैं। विश्व साहित्य की इन दो महान हस्तियों के बारे में इस तरह की राय देने और तुलना करने का दुस्साहस वे ही कर सकते हैं, जिन्होंने इन दोनों में से किसी को भी न पढ़ा हो ।
किताबों और ज्ञान की सभ्य समाज में स्वीकृत पद्वत्तियों पर हमला फासिज्म के वैचारिक उस्तादों के किये की भौंडी नक़ल है। वर्ष 1933 में जर्मनी की सत्ता और सरकार पर कब्जा करने के बाद हिटलर और उसकी नाज़ी पार्टी ने कहा था कि ‘हमने सरकार तो फतह कर ली है, मगर यूनिवर्सिटीज फतह नहीं कर पाए हैं। उन्हें जीतना (मतलब ध्वस्त करना) अभी बाकी है।’ इस एलान के बाद कुछ ही महीनों में हिटलर की जर्मनी में जो हुआ, वह सबके सामने हैं । नाज़ी पार्टी ने बाकायदा राष्ट्रव्यापी आव्हान देकर किताबें जलाने के लिए 10 मई का दिन बुक बर्निंग डे के रूप में मुक़र्रर किया था । इस दिन जर्मनी भर में लाखों किताबें जलाई गयीं। शुरुआत कार्ल मार्क्स और कार्ल काउत्स्की से हुयी, लेकिन सिगमंड फ्रायड, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, यहाँ तक कि अल्बर्ट आईंस्टीन भी नहीं बख्शे गए। किताबों की इस होली के अवसर पर बर्लिन की एक भीड़ को उकसाते हुए हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स ने कहा था कि “हम किताबों से नहीं सीखेंगे, हम नए हिसाब से अपने नागरिक गढ़ेंगे और उनका चरित्र बनायेंगे।“ इन किताबों में 80 वर्ष पहले जा चुके जर्मन कवि और नाटककार हेनरिक हांइन की किताबें भी फूंक दी गयीं। इस कवि ने करीब एक शताब्दी पहले ही चेतावनी दे दी थी कि ‘जो किताबें जलाता है, वह इंसान भी जलाएगा।‘ उनकी यह भविष्यवाणी सही साबित हुई और 1933 में किताबें जलाने के साथ हिटलर ने जो आगाज़ किया, उसके 12 वर्ष, मानवता के इतिहास के अब तक के सबसे बर्बर और हत्यारे 12 वर्ष निकले। भारत में यही काम शिक्षा और शिक्षा संस्थानों में पलीता लगाकर किया जा रहा है। यूं यह कुनबा किताबें जलाने का भी काम भंडारकर लाइब्रेरी से लेकर हुसैन की गैलरी तक कर चुका है। अब इसी काम को दूसरे तरीकों से भी किया जा रहा है। जर्मन कवि के रूपक में ही कहा जाएं, तो जो आज शिक्षा और शिक्षा संस्थानों की बुनियाद में बारूद बिछा रहे हैं, वे कल देश और समाज में जो भी सकारात्मक है, उसमें भी डायनामाईट लगायेंगे।
नाजी पार्टी द्वारा किताबों और ज्ञान परम्परा बोले गए हमलों की खबर मिलने पर सुनने और देखने दोनों ही तरह की विकलांगता की शिकार होने के बावजूद विश्व की महान लेखिका बनी हेलेन केलेर ने हिटलर को एक टेलीग्राम संदेश भेज उससे कहा था कि “अगर आपको लगता है कि आप विचारों को मार सकते हैं, तो लगता है इतिहास ने आपको कुछ नहीं सिखाया है। तानाशाहों ने पहले भी कई बार ऐसा करने की कोशिश की है, मगर विचारों ने अपनी ताकत से ऊपर उठकर उन तानाशाहों को ही नष्ट कर दिया। आप मेरी किताबें और यूरोप के सबसे अच्छे दिमागों की किताबें जला सकते हैं, लेकिन उनमें मौजूद विचार लाखों चैनलों से होकर गुज़रे हैं, वे रहेंगे और दूसरे दिमागों को तेज करते रहेंगे।” हिटलर के कुकर्मों और उसकी दुर्बुद्धि की कठोरतम शब्दों में निंदा भर्त्सना करते हुए हेलेन ने उसे भेजे तार संदेश में लिखा था कि “यह मत सोचिए कि यहूदियों के साथ आपकी बर्बरता यहाँ अज्ञात है। तुम्हारे लिए बेहतर होगा कि तुम्हारे गले में चक्की का पत्थर लटका दिया जाए और तुम समुद्र में डूब जाओ, बजाय इसके कि तुम सभी लोगों से घृणा और तिरस्कार पाओ।“
हिटलर की इस बोनसाई नस्ल ने न हेनरिक हाईन के बारे में सुना होगा, न हेलेन केलेर का लिखा पढ़ा होगा। हिटलर की आगाज़ की पटकथा को भौंडे तरीके से मंचित करने वाले इस कुनबे को उसके अंत के बारे में पता है कि नहीं, नहीं मालूम। इन्होंने उससे कोई सबक सीखा है कि नहीं सीखा, ये तो वे ही जाने। किन्तु दुनिया के साथ भारत के लोग अच्छी तरह जानते है। सिर्फ बचना ही नहीं, निबटना भी जानते हैं।
*(आलेख : बादल सरोज)*
*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*