‘पुलवामा के बाद बालाकोट पर हुई ज्यादा बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक ने भी आतंकवादी हमलों पर रोक नहीं लगायी बल्कि उरी और पुलवामा से बड़ा हमला कश्मीर के पहलगाम में हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि सर्जिकल स्ट्राइक का मक़सद आतंकवादी हमलों को रोकना नहीं है बल्कि हमला करने वालों को सज़ा देना है। यानी रणनीतिक रूप से सर्जिकल स्ट्राइक का मक़सद हमले का जवाब और बड़े हमले से देना है, बस। नतीजा यह होता है कि दूसरी तरफ़ से भी अगली बार और बड़ा हमला किया जाता है।’– जवरीमल्ल पारख का यह लेख भारत-पाकिस्तान की हालिया झड़प को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की कोशिश है। पिछले 70 सालों के इतिहास की कई चीज़ों से जो लोग या तो नावाक़िफ़ हैं, या वर्तमान के साथ उसे जोड़कर नहीं देख पा रहे हैं, उनके लिए यह लेख बहुत उपयोगी, यहाँ तक कि संग्रहणीय है।
आरएसएस ने देश के आज़ाद होने के बाद से हिन्दू जनता को सांप्रदायिक आधार पर संगठित करने के अपने अभियान को कभी रोका नहीं। महात्मा गाँधी की हत्या के कुछ समय बाद ही इसने अयोध्या की बाबरी मस्जिद को लेकर अपने सांप्रदायिक अभियान की शुरुआत कर दी थी। कहा जाता है कि 1528 में बाबर के सेनापति मीर बाक़ी ने बाबर के नाम से अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया था। हिन्दू पौराणिक मान्यता के अनुसार अयोध्या राम की जन्मभूमि मानी जाती है। अगर हम थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि राम (जो दरअसल एक मिथकीय कल्पना से अलग कुछ नहीं है) का जन्म अयोध्या में ही हुआ था, लेकिन ठीक उसी जगह राम का जन्म हुआ था जहाँ बाबरी मस्जिद थी, इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है और न ही इस बात का प्रमाण है कि उस जगह पर कभी राम मंदिर था। लेकिन आरएसएस के मनगढ़ंत दावे के अनुसार जहाँ बाबरी मस्जिद थी, वहाँ पर पहले राम मंदिर था और उसी मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनायी गयी थी। दरअसल, आरएसएस हिंदुओं के धार्मिक विश्वास का इस्तेमाल अपने राजनीतिक लाभ के लिए करना चाहती थी। इसीलिए साज़िश के तहत 22-23 दिसम्बर 1949 की मध्यरात्रि को बाबरी मस्जिद के बीच के गुंबद के नीचे चोरी-छिपे राम की मूर्ति रख दी गयी थी और यह दावा किया गया कि रामलला की मूर्तियाँ ईश्वरीय चमत्कार से स्वयं प्रकट हुई हैं। बाबरी मस्जिद में मूर्तियाँ रखी जाने का बहाना लेकर मस्जिद में मुसलमानों के प्रवेश पर रोक लगा दी गयी थी। मुस्लिम पक्ष मस्जिद में मूर्तियाँ रखे जाने के विरुद्ध अदालत भी गया। स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू ने युक्त प्रांत के काँग्रेस नेताओं को मूर्तियाँ हटाने का आदेश दिया। लेकिन स्थानीय अदालत से यथास्थिति बनाये रखने का आदेश प्राप्त कर मूर्तियों को मस्जिद में यथावत बनाये रखा गया। स्पष्ट था कि प्रदेश के काँग्रेस नेताओं की मूर्तियाँ रखने वालों के साथ मिलीभगत थी। अदालतों में मामला तीस साल से अधिक समय तक लटका रहा। मुसलमानों को मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से वंचित कर दिया गया। 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हिंदुओं में जो सांप्रदायिक प्रतिक्रिया पैदा हुई, और जिसके कारण जगह-जगह सिखों का कत्ले-आम किया गया, उसके बाद लोकसभा चुनाव में हिन्दू सांप्रदायिक वोट काँग्रेस की ओर हस्तांतरित हो गया। उसीका नतीजा था कि काँग्रेस को लोकसभा में 414 और भाजपा को केवल दो सीटें ही मिली। लेकिन आरएसएस-भाजपा को यह समझने में समय नहीं लगा कि धार्मिक भावना को उद्वेलित करने वाले मसले को लेकर हिंदुओं को एकजुट किया जा सकता है। आरएसएस को तब बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के मसले का राजनीतिक इस्तेमाल करने का विचार आया। ठीक इसी समय आरएसएस से जुड़े संगठनों ने बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर बनाने की माँग को लेकर आंदोलन करना शुरू कर दिया।
भारत में राजीव गाँधी के शासनकाल में कुछ ऐसी ग़लतियाँ की गयीं, जिनसे आरएसएस-भाजपा को अपनी स्थिति और मज़बूत करने का अवसर मिला। 1985 में मध्य प्रदेश की शाहबानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फ़ैसला देते हुए गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दिया। लेकिन तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार ने मुस्लिम तत्ववादियों के दबाव के आगे झुकते हुए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को उलट दिया। नये क़ानून के अनुसार, ‘जब एक मुसलमान तलाक़शुदा महिला इद्दत के समय के बाद अपना गुज़ारा नहीं कर सकती है, तो न्यायालय उन संबंधियों को उसे गुज़ारा देने का आदेश दे सकता है, जो मुस्लिम क़ानून के अनुसार उसकी संपत्ति के उत्तराधिकारी हैं। लेकिन अगर ऐसे संबंधी नहीं है अथवा वे गुज़ारा देने की हालत में नहीं है, तो न्यायालय प्रदेश वक्फ़ बोर्ड को गुज़ारा भत्ता देने का आदेश देगा’। इस प्रकार पति को केवल इद्दत की अवधि के लिए गुज़ारा भत्ता देने तक सीमित कर दिया गया। आरएसएस-भाजपा ने इसे मुसलमानों के तुष्टीकरण का एक और उदाहरण बताया।
आरएसएस-भाजपा ने इसके बाद राम मंदिर का आंदोलन और तेज़ कर दिया। हिंदुओं में शाहबानो की तीखी प्रतिक्रिया होती देख हिन्दू पक्ष ने स्थानीय अदालत से मंदिर का ताला खोलने का आदेश हासिल कर लिया। राजीव गाँधी सरकार ने 9 नवंबर 1989 को राम मंदिर का शिलान्यास करने की अनुमति दे दी। राजीव गाँधी सरकार द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों के प्रतिगामी और सांप्रदायिक तत्वों को तुष्ट करने के बावजूद 1989 का लोकसभा का चुनाव काँग्रेस नहीं जीत सकी और एक मिली-जुली सरकार विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में 2 दिसंबर 1989 में गठित हुई। इस सरकार को भाजपा और वामपंथियों ने बाहर से समर्थन दिया। पिछड़ी जातियों के बीच अपने समर्थन को मज़बूत करने के लिए वी पी सिंह सरकार ने अन्य पिछड़ी जातियों के लिए बनाये गये मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू कर दिया, जिसके अनुसार अन्य पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा और रोज़गार में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी। भाजपा को मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों में अपने लिए ख़तरा महसूस हुआ और इस प्रभाव को कम करने तथा राम जन्मभूमि के पक्ष में देश भर में समर्थन जुटाने के लिए भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक रथ यात्रा निकालने का निर्णय लिया। इस रथ यात्रा ने देश में सांप्रदायिक तनाव में काफ़ी वृद्धि कर दी और कई जगह भारी दंगे हुए। लालू प्रसाद यादव सरकार ने बिहार में रथ यात्रा को बीच में ही रोक लिया और लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार कर लिया गया। बाद में भाजपा ने वी पी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। 1991 में मध्यावधि चुनाव हुए और पी वी नरसिंहा राव के नेतृत्व में एक बार फिर काँग्रेस सरकार गठित हुई और इस सरकार ने पाँच साल की अवधि पूरी की।
देश में सांप्रदायिक स्थितियों के लगातार बिगड़ते जाने का लाभ भाजपा को मिला। 1984 में भाजपा को ज़रूर केवल दो सीटें मिलीं लेकिन 1989 में उसे 85 सीटें मिलीं और 1991 में 120 सीटें मिलीं। न केवल सीटें, बल्कि वोट प्रतिशत में भी बढ़ोतरी हुई। भाजपा को राम जन्मभूमि आंदोलन के लगातार मज़बूत होते जाने, इसके साथ ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का विस्तार होने का लाभ मिला। भाजपा को इस बात का अहसास हो गया था कि राम जन्मभूमि आंदोलन उन्हें केंद्र में राजसत्ता तक पहुँचा सकता है। इसी का नतीजा था कि 06 दिसंबर 1992 को कारसेवा के नाम पर देश भर से कारसेवकों को अयोध्या में एकत्र होने का आह्वान किया गया। जिन्हें कारसेवक कहा जा रहा था, वे दरअसल आरएसएस और उससे सम्बद्ध संगठनों के कार्यकर्ता थे। लाखों की संख्या में एकत्र कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद पर हमला किया और कुछ ही घंटों में 500 साल पुरानी मस्जिद का विध्वंस कर दिया गया। पुरानी और विशाल मस्जिद का विध्वंस बिना योजना के संभव नहीं था। भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर यह सबसे बड़ा हमला था। देश के कई हिस्सों में मुसलमानों पर सुनियोजित हमले हुए। उसके बाद मुंबई और दूसरे शहरों में हिंसक कार्रवाइयाँ हुईं। इन घटनाओं ने मुसलमानों में असुरक्षा की भावना पैदा की। जहाँ भी वे अल्पसंख्यक थे, उन्हें मुख्यधारा से अलगाने की प्रक्रिया तेज़ हो गयी। इसकी प्रतिक्रिया भी हुई। इसी दौरान कश्मीर के हालात बिगड़ते चले गये। कश्मीर और देश के दूसरे हिस्सों में आतंकवादी कार्रवाइयाँ बढ़ गयीं।
बाबरी मस्जिद इस बात का उदाहरण है कि शत्रुता की भावना को भरने के लिए अतीत की ऐसी तस्वीर पेश की जाती है, जिसका सत्य पर आधारित होना ज़रूरी नहीं होता। उसमें बहुत कुछ काल्पनिक और मनगढ़ंत होता है। बाबरी मस्जिद का विध्वंस और उसकी जगह राम मंदिर का निर्माण हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर किया गया। राम जन्मभूमि का पूरा आंदोलन उस एक लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में एक क़दम था जो आरएसएस का अंतिम लक्ष्य है : धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक भारत को ध्वस्त कर उसे हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करना। इसके लिए ज़रूरी है कि ग़ैर-हिंदुओं को नागरिकता के उन सब अधिकारों से वंचित किया जाये, जो मौजूदा संविधान भारत के सभी नागरिकों को प्रदान करता है। जब आरएसएस और उससे सम्बद्ध संगठन मुसलमानों की देशभक्ति को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, उनके धार्मिक और सामाजिक विश्वासों को ग़ैर-भारतीय बताकर न केवल तीखी आलोचना करते हैं, बल्कि इस वजह से उन पर हिंसक हमले भी किये जाते हैं। कई बार मुसलमानों पर हिन्दू भीड़ गोमाँस रखने के आरोप में हमला कर देती है, जबकि ऐसे हर मामले में आरोप अंततः झूठा निकलता है। इसी तरह लव जिहाद भी एक ऐसा ही फैलाया गया झूठ है, जिसके अनुसार मुसलमान युवक हिन्दू लड़कियों को बहला-फुसलाकर अपने जाल में फाँस लेते हैं और ऐसा आरोप लगाकर मुस्लिम युवाओं पर हिंसक हमले किये जाते हैं।
बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि आंदोलन ने भारतीय राजनीति को निर्णायक रूप से बदल डाला। चुनावों में भाजपा का समर्थन लगातार बढ़ता गया। ज़रूरत इस बात की थी कि अपने को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली राजनीतिक पार्टियाँ एकजुट होकर भाजपा के विरुद्ध संघर्ष करतीं, ताकि जनता के बीच उसके बढ़ते समर्थन को नियंत्रित किया जा सके। लेकिन इसके विपरीत बहुत-सी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित होकर अवसर मिलते ही भाजपा के साथ गठबंधन करने में नहीं हिचकिचाती थीं। 1998 में जब पहली बार भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनी, तब उसको समर्थन देने वाली कई और पार्टियाँ भी थीं। 1999 में यह समर्थन और बढ़ा, जिसके कारण भाजपा लगातार पाँच साल तक केंद्र में सत्तासीन रही। आपातकाल के बाद से वामपंथी पार्टियों की नीति यही रही थी कि किसी भी तरह काँग्रेस और भाजपा को सत्ता से बाहर रखना है। लेकिन वे यह नहीं देख पाये कि सत्ता से बाहर रहकर भी ग़ैर-काँग्रेस और ग़ैर-भाजपा सरकारों से नज़दीकियों का लाभ भाजपा को लगातार मिलता रहा है। शायद इसका कारण यह था कि वे अब भी काँग्रेस और भाजपा का मूल्यांकन एक ही तरह से कर रहे थे। तानाशाही प्रवृत्ति की पार्टी (काँग्रेस) और फ़ासीवाद पार्टी (भाजपा) के बीच के अंतर को वे तब तक नहीं समझ पाये, जब तक कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस नहीं हो गया।
*नरेंद्र मोदी का शासन और उसके निहितार्थ*
2002 में गोधरा की घटना और उसके बाद गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार ने हालात को और अधिक बिगाड़ा, जिसका पूरा लाभ उठाते हुए भारतीय जनता पार्टी लगातार ताक़तवर होती गयी और नतीजतन 2014 से यह पार्टी एक बार फिर से केंद्र की सत्ता में है। भारतीय जनता पार्टी के मज़बूत होने का अर्थ केवल एक सांप्रदायिक पार्टी का मज़बूत होना नहीं है। वह एक ब्राह्मणवादी-मनुवादी पार्टी भी है, जो संविधान प्रदत्त समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों में विश्वास नहीं करती। भारतीय जनता पार्टी (जिसका पहले नाम भारतीय जनसंघ था) जब-जब सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में हो या केंद्र में, उसने उस दिशा में लगातार क़दम उठाये, जो आरएसएस की सांप्रदायिक फ़ासीवादी विचारधारा के पक्ष में जाते हैं। लेकिन 2014 में जबसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर वह तेज़ी से आगे बढ़ी है। लेकिन इस काम में सफलता तभी हासिल हो सकती है, जब व्यापक हिंदू जनता का समर्थन उसे मिले। इस दिशा में तो आरएसएस और उससे संबद्ध सभी संगठन ज़मीनी स्तर पर हमेशा काम करते रहे हैं, लेकिन सत्ता में आने पर वे पूरे सरकारी तंत्र का भी निर्लज्जतापूर्वक अपने लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इनमें पाठ्यक्रमों में फेरबदल, हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक इतिहास लेखन और अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए मीडिया का इस्तेमाल शामिल हैं। आरएसएस और भाजपा के राजनीतिक प्रचार के साधन के रूप में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जितने बड़े पैमाने पर इस्तेमाल पिछले 11 सालों में हुआ है, वैसा आज़ादी के बाद के किसी भी दौर में नहीं हुआ था। सत्ता के साथ नजदीकियों के कारण ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का नाम गोदी मीडिया हो गया है। इस बदलाव की सबसे बड़ी वजह यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिन निजी हाथों में हैं, वे सभी या तो भाजपा समर्थक हैं या नहीं चाहते कि उनके अन्य व्यवसायों पर विरोध का नकारात्मक असर पड़े।
नरेंद्र मोदी शासनकाल का सबसे महत्त्वपूर्ण और दूरगामी असर वाला काम है क़ानूनों में बदलाव। भारतीय जनता पार्टी अपने घोषणापत्रों में तीन लक्ष्यों को बार-बार दोहराती रही है। पहला, कश्मीर से धारा 370 हटाना, दूसरा, समान नागरिक संहिता लागू करना और तीसरा, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण। इन तीनों का लक्ष्य है, अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी को मुख्यधारा से निकालकर हाशिये पर धकेलना और उन्हें यह एहसास कराना कि भारत में उनकी नागरिकता हिंदुओं के समकक्ष नहीं हो सकती। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में कश्मीर से धारा 370 हटायी जा चुकी है, अयोध्या में ठीक जिस जगह पहले बाबरी मस्जिद थी, वहाँ राम मंदिर का निर्माण हो चुका है और जनवरी, 2024 में राम प्रतिमा की ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ भी हो चुकी है। समान नागरिक संहिता संबंधी क़ानून कुछ भाजपा राज्यों में बनाये जा चुके हैं और उन्हें लागू भी किया जा चुका है।
जिस दौर में सांप्रदायिक राजनीति का तेज़ी से फैलाव और उभार हो रहा था, उसी दौर में भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह दक्षिणपंथी करवट ले रही थी। कह सकते हैं कि इस दौर में पूँजीवादी व्यवस्थाओं का विस्तार हुआ है, उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान बढ़ा है और जिस तरह की भी वैकल्पिक व्यवस्थाएँ थीं, वे या तो ढह गयी हैं, या कमज़ोर हुई हैं। इस दौर की तीन पहचानें हैं, निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण। इसी दौर की उपज आतंकवाद भी है। आतंकवाद को विश्वव्यापी और ख़तरनाक बनाने में यदि अमरीका की नवसाम्राज्यवादी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं, तो उस सैन्य संबंधी प्रौद्योगिकी का भी हाथ है, जो नवीनतम हथियारों और संचार प्रौद्योगिकी के रूप में सामने आयी है। भारत में आतंकवाद कई रूपों में सक्रिय हैं, लेकिन मीडिया आमतौर पर कथित रूप से जिहादी या इस्लामी आतंकवाद को ही अपने हमले का निशाना बनाता रहा है। आतंकवाद यदि एक ओर देशभक्ति की भावनाओं को भुनाने का ज़रिया बनता है, तो दूसरी ओर, यह मीडिया को एक बहुत ही उत्तेजनापूर्ण और रोमांचकारी विषय वस्तु भी प्रदान करता है। मीडिया दर्शकों के इस राजनीतिक दुराग्रह को मज़बूत करता है कि ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते, लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’, जबकि हिंदुत्वपरस्त आतंकवाद भी अपने खूँखार रूप में सामने आ चुका है। यहाँ यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और बाबरी मस्जिद का विध्वंस, उड़ीसा, कर्नाटक आदि में ईसाइयों पर हमले आतंकवादी कार्रवाइयों से कमतर नहीं है।
2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार लगातार ऐसे क़दम उठाती रही है, जिसका मक़सद हिंदुओं को सांप्रदायिक आधार पर एकजुट करना है, उनके और मुसलमानों के बीच इस हद तक विभाजन पैदा करना है, जिससे न केवल हिंदू एकजुट हों, बल्कि धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग भी किया जा सके। चाहे मसला गो-माँस या गो-तस्करी का हो या लव जेहाद का या जय श्रीराम बोलने का, मक़सद यही है कि मुसलमानों में ऐसा भय पैदा किया जाये, जिससे कि वे अपने को मुख्यधारा से अलग-थलग कर लें। उनका मक़सद यह भी है कि वे हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफ़रत और घृणा भर दें (और भय भी) कि वे उनका अपने आसपास होना भी बर्दाश्त न कर सके और मौक़ा लगते ही उनके प्रति हिंसक हो जाये। जयपुर से मुंबई जाने वाली ट्रेन में चेतन सिंह नामक सिपाही द्वारा चार मुसलमानों की हत्या इसी बढ़ती नफ़रत का नतीजा था। आरएसएस की कोशिश यह है कि हिंदू यह मानने लगें कि मुसलमान उनके लिए वैसे ही बोझ हैं, जैसे हिटलर की जर्मनी में यहूदी। उनकी समस्त परेशानियों का कारण मुसलमान ही है। इसलिए मुसलमानों के विरुद्ध किया जाने वाला कोई अपराध, अपराध की श्रेणी में नहीं आता। प्रधानमंत्री ही नहीं, भाजपा और संघ का कोई नेता ऐसे हिंसक अपराधों की न तो कभी निंदा करता है और न ही इन अपराधों की रोकथाम के लिए भाजपा सरकार द्वारा कोई क़दम उठाया जाता है। उनकी कोशिश यह भी है कि एक समुदाय के रूप में मुसलमानों की देशभक्ति को हिंदुओं की नज़रों में संदिग्ध बना दिया जाए। उनकी मौजूदगी को औरतों और बच्चों के लिए ख़तरा बताया जाये। उन्हें देश का दुश्मन और आतंकवादी बताया जाये और अगर सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं है, तो भी सब मुसलमान आतंकवाद के समर्थक अवश्य हैं, यह हिंदू अपने दिमागों में बैठा ले।
आरएसएस इसके लिए दो और हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है। एक, कश्मीर के सभी मुसलमानों को अलगाववादी और पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद का समर्थक बताना, और इसी प्रचार का परिणाम है, कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म। दूसरे, वे सभी मुसलमान, जिनके पास भारत की नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं हैं, उन्हें घुसपैठिये और देश के लिए ख़तरनाक बताकर बाहर निकालना और जब तक वे भारत से बाहर नहीं जाते, तब तक के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित करके नज़रबंदी शिविरों में रखना। इसी के लिए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाया गया है, जिसका अगला क़दम नागरिकों का राष्ट्रीय पंजीकरण (एनआरसी) तैयार करना होगा। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को— चाहे उनका धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि कुछ भी क्यों न हो — उन्हें समान नागरिकता का अधिकार देता है। लेकिन अब इसमें से मुसलमानों को अलग कर दिया गया है। अगर कोई पड़ोसी राज्य का मुसलमान भारत की नागरिकता लेना चाहता है, तो उसे सीएए के तहत नागरिकता नहीं मिलेगी। जहाँ तक नागरिकता के रजिस्टर का सवाल है, उन सभी लोगों की नागरिकता ख़तरे में पड़ जायेगी, जिनके पास नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा। लेकिन मुसलमानों को छोड़कर शेष समुदायों को शरणार्थी मानकर नागरिकता दे दी जायेगी। अगर 2024 के चुनाव में भाजपा को उम्मीद के अनुरूप भारी जीत मिलती, तो निश्चय ही इस बात की संभावना थी कि इस क़ानून को लागू कर दिया जाता।
*भारत में आतंकवाद का इतिहास*
आरएसएस-भाजपा का यह कहना सही नहीं है कि केवल इस्लामी आतंकवाद ही भारत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा रहा है। इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्या इस्लामी आतंकवाद के कारण नहीं हुई थी। 1980 में सिख उग्रवाद के लगातार गंभीर होते जाने ने न केवल पंजाब, बल्कि देश के दूसरे भागों में भी आतंकवादी घटनाएँ बढ़ती जा रही थी। जरनैल सिंह भिंडरवाले के नेतृत्व में उग्रवादियों ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर क़ब्ज़ा कर लिया था। स्वर्ण मंदिर को उग्रवादियों से मुक्त कराने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने 2 जून 1984 के दिन स्वर्ण मंदिर में सेना भेजी। इस अभियान को ऑपरेशन ब्लूस्टार नाम दिया गया। सेना ने स्वर्ण मंदिर को उग्रवादियों से मुक्त तो करा लिया, लेकिन इस मुठभेड़ में दर्शन के लिए आये आम नागरिक भी मारे गये और स्वर्ण मंदिर को भी काफ़ी नुक़सान हुआ। स्वर्ण मंदिर सिख समुदाय का सबसे पवित्र धार्मिक स्थल था, इसलिए इसकी सिख समुदाय में बहुत तीखी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गाँधी की सुरक्षा में तैनात दो सिख सिपाहियों ने उन्हें गोलियों से भून डाला। इसकी भयावह प्रतिक्रिया सिखों के विरुद्ध व्यापक जनसंहार में हुई।
श्रीलंका में तमिलों पर हो रहे अत्याचार ने तमिल उग्रवाद को जन्म दिया। राजीव गाँधी ने 1987 में श्रीलंका में शांति क़ायम करने के लिए पीस कीपिंग फोर्सेज़ भेजी। इससे तमिल उग्रवाद के सबसे बड़े संगठन लिबरैशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (एलटीटीई) से सीधे टकराव की स्थिति पैदा हो गई। 1989 में काँग्रेस लोकसभा चुनाव हार गयी थी, लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ज़्यादा दिन नहीं चली और 1991 में एक बार फिर चुनाव हुआ। अपनी पार्टी के प्रचार के सिलसिले में तमिलनाडु की यात्रा के दौरान राजीव गाँधी पर एलटीटीई के सुसाइड बॉम्बर ने हमला किया। इस हमले में वे मारे गये। इस तरह भारत की पदासीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी सिख अलगाववाद के हाथों मारी गयीं और एक पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी तमिल अलगववाद के हाथों मारे गये।
लोकसभा चुनाव के दौरान 13 दिसम्बर 2001 को भारत के संसद भवन पर पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों ने हमला किया। बताया जाता है कि इसके पीछे जैश-ए-मोहम्मद का हाथ था। हमले में कुल पाँच आतंकवादी शामिल थे और वे सभी पुलिस की गोली के शिकार हुए। दिल्ली पुलिस के छः जवान, दो संसद सुरक्षा सेवा के जवान और एक माली मारे गये। यह एक बड़ा हमला था और सारे सुरक्षा इंतज़ामों के बावजूद आतंकवादी संसद भवन परिसर में घुसने में कामयाब हुए। कुछ लोग घायल भी हुए।
27 फरवरी 2002 को जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, साबरमती एक्स्प्रेस ट्रेन के एस-6 डिब्बे में आग लग गयी और 59 हिन्दू तीर्थयात्री मारे गये। भाजपा ने और विशेष रूप से गुजरात सरकार ने पूरे प्रदेश में उग्र सांप्रदायिक माहौल बनाया और उसे बनाने में नरेंद्र मोदी की भी सक्रिय भूमिका थी। उसके कारण ज़बरदस्त एकतरफ़ा दंगे भड़क उठे और मुसलमानों का व्यापक नरसंहार हुआ। सरकारी आँकड़ों के अनुसार 2000 से अधिक लोग मारे गये, औरतों का अपमान किया गया और गर्भवती औरतों के पेट तक चीर डाले गये। गुजरात नरसंहार ने नरेंद्र मोदी की उग्र हिंदुत्ववादी छवि बना दी, जिसका पूरा लाभ नरेंद्र मोदी को भी मिला और भाजपा को भी मिला।
आतंकवादी हमलों का सिलसिला लगातार चलता रहा। लेकिन कुछ हमले ऐसे भी हुए, जिनके बारे में संदेह किया गया कि उसके पीछे पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों का नहीं, बल्कि हिंदुत्ववादी संगठनों का हाथ हो सकता है। 18 फरवरी 2007 में पाकिस्तान जाने वाली समझौता एक्स्प्रेस पर हुए हमले में 70 लोग मारे गये और 50 लोग घायल हुए। उसी साल 18 मई को हैदराबाद की मक्का मस्जिद पर भी हमला हुआ और जिसमें 16 लोग मारे गये और 100 लोग घायल हुए। 11 अक्टूबर 2017 को अजमेर की प्रसिद्ध दरगाह पर भी आतंकवादी हमला हुआ, जिसमें 3 लोग मारे गये और 17 लोग घायल हुए। 29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगाँव में हुए आतंकवादी हमले में 10 लोग मारे गये और 80 लोग घायल हुए। इन चारों हमलों के पीछे हिंदुत्ववादी संगठनों का हाथ होने का संदेह किया गया। भारतीय जनता पार्टी की पूर्व सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर और कुछ अन्य लोगों को इस सिलसिले में गिरफ़्तार भी किया गया। प्रज्ञा सिंह ठाकुर पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का मामला आज भी अदालत में चल रहा है। लेकिन इन्हीं प्रज्ञासिंह ठाकुर को भाजपा ने भोपाल से लोकसभा का न केवल टिकट दिया, बल्कि वह लोकसभा का चुनाव जीतने में भी कामयाब रही। प्रज्ञा सिंह उग्र मुस्लिम विरोधी बयानों के लिए पहचानी जाती हैं। वे गाँधी के हत्यारे नाथुराम गोडसे के समर्थन में कई बार बोल चुकी हैं। हिंदुओं को अपने पास हथियार रखने का आह्वान करती हैं और अभी हाल में मुसलमानों को धमकाते हुए कहा कि अगर आपका धर्म गो-हत्या है, तो हमारा धर्म आपकी हत्या करना है। हिंसा की इन खुली धमकियों के बावजूद उनके विरुद्ध किसी तरह की कार्रवाई नहीं की गयी।
आतंकवाद की सबसे बड़ी घटना, जिसमें पाकिस्तानी आतंकवादियों का हाथ था, मुंबई में 26 नवंबर 2008 को हुई, जिसमें 175 लोग मारे गये और 300 से अधिक लोग घायल हुए। पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैबा के 10 आतंकवादियों ने समुद्र के रास्ते आकर मुंबई के 8 ठिकानों पर, जिनमें ताज



