बस्तर : जब स्कूली रसोईये को पुलिस ने बनाया ईनामी माओवादी और मारा मुठभेड़ में!

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रायपुर। छत्तीसगढ़ में कथित रूप से माओवाद ग्रस्त बस्तर की खबरें राजधानी रायपुर तक पहुंचने में कई दिन और कभी-कभी कई सप्ताह लग जाते है। तुरत-फुरत जो खबरें पहुंचती है, वे पुलिस और प्रशासन की प्रेस विज्ञप्तियां ही होती है और जो प्रायः सच्चाई से कोसों दूर होती है।

6 जून को प्रिंट मीडिया के पहले पन्ने की सबसे बड़ी खबर शीर्ष माओवादी नेता सुधाकर के इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान में 5 जून को एक मुठभेड़ में मारे जाने की थी। उन पर 40 लाख रूपये का ईनाम था। लेकिन इन खबरों से यह पता नहीं चलता कि उनके साथ कितने और लोग मारे गए थे।

बहरहाल, पांच दिन बाद 10 जून को सुरक्षा बलों ने दावा किया कि इस नक्सल विरोधी अभियान के दौरान सुधाकर समेत सात माओवादी भी मारे गए थे। बाद में जिन 6 शवों की पहचान हुई, उनमें मद्देड़ ब्लॉक के दूरस्थ गांव इरपागुट्टा का रहने वाला 35 वर्षीय महेश कुडियम भी शामिल था। पुलिस के अनुसार, वह सीपीआई (माओवादी) की नेशनल पार्क एरिया कमेटी का सदस्य भी था और उस पर एक लाख रुपये का इनाम था।

पुलिस की कहानी की जालसाजी का पर्दाफाश यही से शुरू होता है। पत्रकारों की स्वतंत्र छानबीन, जो मृतक महेश की पत्नी और स्थानीय ग्रामीणों से बातचीत पर आधारित है और जो इंटरनेट मीडिया में वीडियो के रूप में उपलब्ध हैं, से पता चलता है कि उसका माओवादियों से कोई लेना-देना नहीं था, बल्कि वह गांव के स्थानीय स्कूल में लंबे समय से रसोईये के रूप में काम कर रहा था। जिस स्कूल में वह कार्यरत था, वहां के प्रधान आचार्य रमेश उप्पल ने उनकी स्पष्ट पहचान की है और एक रसोइये के रूप में स्कूल में उनकी भूमिका की पुष्टि की है। मीडियाकर्मियों को उन्होंने बताया है कि महेश 2023 से मध्यान्ह भोजन मजदूर (रसोइये) के तौर पर उनके स्कूल से जुड़ा था। L वह नियमित रूप से काम करता था और उसे 1,200 रूपये प्रति माह मानदेय मिलता था। वह इस साल अप्रैल में आखिरी बार स्कूल में उपस्थित हुआ था। आजकल स्कूलों में गर्मी की छुट्टियां चल रही हैं।

अप्रैल अंत से छत्तीसगढ़ में स्कूलों में गर्मी की छुट्टियां लग जाती हैं और प्रायः जून अंत तक चलती हैं। इस दौरान ये रसोईये बेरोजगार हो जाते हैं और प्रायः घर में ही रहते हैं, कुछ खेती-किसानी के छोटे-मोटे काम में लग जाते हैं और कुछ लोग रोजगार की खोज में दो माह के लिए बाहर पलायन कर जाते हैं। महेश उन लोगों में था, जो घर में ही रहकर काम करना पसंद करता था।

उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ के स्कूलों में लगभग एक लाख मध्यान्ह भोजन मजदूर काम करते हैं। ये शासन के नियमित कर्मचारी नहीं है। सरकार इन्हें अंशकालिक मजदूर मानकर मात्र 1200 रूपये प्रति माह मानदेय देती है और लंबे अरसे से ये मजदूर कलेक्ट्रेट दर पर मजदूरी की मांग कर रहे हैं। न्यूनतम मजदूरी और शासकीय सुविधाओं से वंचित इन मजदूरों की, और उसमें भी बस्तर जैसे संकटग्रस्त क्षेत्र में काम कर रहे किसी आदिवासी मजदूर की, दयनीय स्थिति की कल्पना आप आसानी से कर सकते हैं।

‘हिंदुस्तान टाइम्स’ और अन्य मीडिया कर्मियों से बातचीत में मृतक महेश की पत्नी सुमित्रा ने कहा है, “मेरे पति मवेशी चराने जंगल गए थे। शाम तक वे घर नहीं लौटे। बाद में गांव वालों से पता चला कि उन्हें सुरक्षा बल ले गए हैं और अगले दिन उन्हें मुठभेड़ में माओवादी बताकर मार दिया गया।”

इस गांव के अन्य ग्रामीण भी सुमित्रा के बयान की पुष्टि कर रहे हैं। वे बताते है कि : “जब हम जंगल में अपने मवेशी खोज रहे थे, हमने सुरक्षाकर्मियों को उन्हें जंगल के पास से ले जाते देखा है। वे निहत्थे थे। फिर हमें खबर मिली कि उन्हें माओवादी कहकर मार दिया गया है। यह गलत है।”

रपागुट्टा गांव के ग्रामीणों के साथ बातचीत से यह बिल्कुल साफ है कि चार जून को महेश जंगल में अपने मवेशी चराने गया था, जहां से उसे सुरक्षाकर्मियों ने पकड़ लिया और 5 जून को कथित मुठभेड़ में मार दिया। यह सुरक्षाकर्मियों द्वारा एक निर्दोष आदिवासी की सुनियोजित हत्या है। ऐसा कहा जाता है कि माओवादी नेता सुधाकर को भी पकड़कर मारा गया है, जिसे बाद में मुठभेड़ का रूप दिया गया है। इससे ऐसा लगता है कि महेश का उपयोग चारे के रूप में इसी नकली मुठभेड़ को असली रूप देने के लिए किया गया है। 

पुलिस की इस जालसाजी के उजागर होने के बाद इस घटना की मजिस्ट्रियल जांच कराने की घोषणा की गई है, लेकिन कोई निष्पक्ष जांच होगी, इस पर किसी को भरोसा नहीं है, क्योंकि उनका पिछला अनुभव बताता है कि पिछले ढाई दशकों में हुए सैकड़ों फर्जी मुठभेड़ों के मामलों में किसी भी दोषी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई है। 

बस्तर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक सुंदरराज पी. ने एक आधिकारिक बयान में कहा है कि महेश कुडियम स्कूल में रसोईया तो था, लेकिन साथ ही माओवादी भी था। यह भी जांच का विषय है कि महेश की केंद्रीय समिति सदस्य गौतम और राज्य समिति सदस्य भास्कर जैसे वरिष्ठ माओवादी नेताओं से कैसे और कब मुलाकात हुई। मामले की सभी पहलुओं की गहन, निष्पक्ष और पेशेवर जांच की जा रही है।” साफ है कि पुलिस जांच के सामने मजिस्ट्रियल जांच कहीं टिकने वाली नहीं है और महेश की हत्या करने वाले सुरक्षा बलों का कुछ होना-जाना नहीं है।

चूंकि महेश एरिया समिति का सदस्य था, 1 लाख रूपयों का ईनामी भी था, इसलिए पुलिस अब यह कहानी भी गढ़ेगी कि उसने किन-किन जघन्य और आपराधिक वारदातों में भी हिस्सा लिया था। 

अब सवाल यह उठता है कि महेश के मुठभेड़ में मारे जाने की घोषणा 10 जून को क्यों की गई, जबकि उसकी लाश 6 जून को ही पुलिस को मिल गई थी। चूंकि पुलिस ने अपने बयान में सरकारी स्कूल में महेश की नौकरी को स्वीकार किया है, इसलिए प्रशासन को यह भी बताना चाहिए कि कैसे एक लखटकिया ईनामी माओवादी सरकारी स्कूल में पिछले डेढ़-दो साल से रसोईये के रूप में काम करके प्रतिष्ठा अर्जित कर रहा था और प्रशासन को इसकी हवा तक नहीं लगी। भाई, पुलिस की कहानी में बड़ा झोल है।

बहरहाल, यह कहानी बताती है कि छत्तीसगढ़ में बस्तर जैसे दूरस्थ अंचलों में रहने वाले लोग किस प्रकार बिना किसी मानवाधिकार के गुजर-बसर करने और मुठभेड़ के नाम पर  बलों की गोलियों से मरने के लिए अभिशप्त हैं।

✒️विशेष रिपोर्ट:-संजय पराते(रिपोर्टर अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)