सावरकर-मिथक और वास्तविकता

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इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई एक पोस्ट ने पूरे देश में आक्रोश और घृणा की लहर पैदा कर दी। ‘स्वतंत्रता दिवस की शुभकामना’ शीर्षक के अंतर्गत, इसमें चार चेहरे दिखाए गए थे — वी. डी. सावरकर, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और शहीद भगत सिंह। नीचे नारा लिखा था – ‘स्वतंत्रता उनका उपहार है/भविष्य को आकार देना हमारा मिशन है’। आक्रोश स्वाभाविक था। सावरकर अंडमान द्वीप समूह की सेलुलर जेल में कैद रहते हुए ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार से बार-बार अत्यंत कायरतापूर्ण शब्दों में क्षमादान की गुहार लगाने के लिए जाने जाते हैं। बाद में, उन्हें 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के मामले में आरोपित किया गया और अदालत ने सबूतों के अभाव में उन्हें बरी कर दिया, लेकिन एक जाँच आयोग ने उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया था। अंग्रेजों के एक सहयोगी और महात्मा गांधी की हत्या में शामिल एक षड्यंत्रकारी को भारत के गौरवशाली स्वतंत्रता संग्राम की तीन सबसे प्रसिद्ध हस्तियों के समकक्ष रखना इतिहास का त्रासद मजाक उड़ाना था।

संघ परिवार की लंबे समय से निरंतर सुनियोजित कोशिश रही है कि सावरकर की प्रशंसा की जाएं और उसे एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्थापित किया जाएं। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौरान 2003 में संसद में उनका पोर्ट्रेट स्थापित किया गया था और पोर्ट ब्लेयर हवाई अड्डे का नाम बदलकर वीर सावरकर हवाई अड्डा कर दिया गया था। प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्री तथा भाजपा नेता नियमित रूप से सावरकर की प्रशंसा करते रहे हैं। हाल ही में, सावरकर की जयंती पर, मोदी ने उन्हें “भारत माता का सच्चा सपूत” कहा था। सावरकर के प्रति संघ परिवार की यह प्रशंसा मुसलमानों के प्रति शत्रुता के उस जहरीले और भड़काऊ दर्शन से उपजी है, जिसका समर्थन सावरकर ने किया था, और जो स्वयं आरएसएस की विचारधारा का आधार है।

सावरकर के इस निरंतर महिमा मंडन और मुख्य धारा के मीडिया और सोशल मीडिया के कुछ हिस्सों द्वारा इसे उत्सुकतापूर्वक मदद मिलने को देखते हुए, उनके बारे में झूठ को उजागर करना और सच्चाई को दोहराना आवश्यक है।

सावरकर के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उनके जीवन के दो अलग-अलग पड़ाव हैं। पहला अंडमान में उनकी कैद से पहले का है और दूसरा उनकी रिहाई के बाद का। पहले दौर में वे मुख्यधारा के राष्ट्रीय आंदोलन के एक ऐसे अधीर युवा थे, जो शहादत जैसे त्वरित निर्णायक कदमों की आकांक्षा रखते थे। उन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) का इतिहास लिखा और हिंदू समाज में व्याप्त जातिगत विभाजन के खिलाफ आवाज उठाई। वे मित्र मेला नामक एक गुप्त संस्था में शामिल हुए और बाद में, उन्होंने अपना गुप्त संगठन अभिनव भारत (‘नया भारत’) बनाया, जो ब्रिटिश शासकों को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसक तरीकों में विश्वास करता था।

*प्रारंभिक वर्ष*

पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज से स्नातक होने के बाद, सावरकर कानून की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए। वे मैज़िनी और गैरीबाल्डी जैसे उग्र इतालवी राष्ट्रवादियों से प्रभावित थे। 1909 में लंदन में उन्होंने एक भारतीय युवा छात्र मदन लाल ढींगरा को भारत राज्य के सचिव के सहयोगी विलियम हट कर्जन वायली की हत्या करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके लिए अंग्रेजों ने ढींगरा को फांसी पर लटका दिया। पहले से ही निगरानी में होने के कारण, सावरकर संदेह के घेरे में आ गए थे, लेकिन कोई ठोस सबूत नहीं मिल सका। इस बीच, सावरकर के भाई गणेश, जो अभिनव भारत के सदस्य थे, को बम एकत्रित करने के आरोप में भारत में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें आजीवन निर्वासन की सजा सुनाई गई। इसका बदला लेने के लिए, अभिनव भारत के एक अन्य सदस्य अनंत कन्हेरे ने नासिक के जिला मजिस्ट्रेट की गोली मारकर हत्या कर दी। कन्हेरे और अन्य को गिरफ्तार कर लिया गया और उनके सामान से सावरकर के कई पत्र और लंदन से उनके द्वारा भेजे गए कई रिवॉल्वर भी मिले। पुलिस ने टेलीग्राम द्वारा गिरफ्तारी का वारंट लंदन भेजा, जहाँ सावरकर ने 13 मार्च, 1910 को आत्मसमर्पण कर दिया। भारत लाते समय, जहाज के मार्सिले बंदरगाह पर लंगर डालने पर वे भाग निकले। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और इस मामले ने फ्रांस और इंग्लैंड में काफ़ी हंगामा मचा दिया। सावरकर की याचिकाएँ अंततः खारिज कर दी गईं और उन्हें भारत वापस लाया गया, 50 साल की जेल की सजा सुनाई गई और 1911 में अंडमान द्वीप समूह की कुख्यात जेल में भेज दिया गया। सावरकर के जीवन का यही वह हिस्सा है, जिसे स्कूली बच्चों को पढ़ाया जाता है और स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के रूप में प्रचारित किया जाता है।

*एक क्रांतिकारी से अंग्रेज समर्थक*

लगभग तुरंत ही, सावरकर ने ब्रिटिश शासकों से क्षमादान की याचिकाएँ दायर करनी शुरू कर दीं। 1911 की उनकी पहली याचिका अब गुम हो चुकी है, लेकिन 14 नवंबर, 1913 को भारत सरकार के गृह मंत्री को संबोधित उनकी दूसरी याचिका में उसका उल्लेख मिलता है। जेल में अपनी मुश्किलों को गिनाने के बाद, सावरकर अंत में लिखते हैं :

“इसलिए यदि सरकार अपनी असीम कृपा और दया से मुझे रिहा कर दे, तो मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेज सरकार के प्रति निष्ठा का प्रबल समर्थक बन सकता हूं, जो कि प्रगति की सर्वोपरि शर्त है। जब तक हम जेलों में हैं, भारत में महामहिम की वफ़ादार प्रजा के सैकड़ों-हज़ारों घरों में सच्ची खुशी और आनंद नहीं आ सकता, क्योंकि खून पानी से ज़्यादा गाढ़ा होता है ; लेकिन अगर हमें रिहा कर दिया गया, तो लोग सहज ही सरकार के प्रति खुशी और कृतज्ञता का जयकारा लगाएँगे, जो दंड देने और बदला लेने से ज़्यादा क्षमा करना और सुधारना जानती है। इसके अलावा, संवैधानिक मार्ग अपनाने से भारत और विदेशों में वे सभी गुमराह युवा वापस आ जाएँगे, जो कभी मुझे अपना मार्गदर्शक मानते थे। मैं सरकार की अपनी किसी भी क्षमता में सेवा करने के लिए तैयार हूँ, क्योंकि मेरा रूपांतरण कर्तव्यनिष्ठ है, इसलिए मुझे आशा है कि मेरे भविष्य का आचरण भी ऐसा ही होगा। मुझे जेल में रखकर जो कुछ भी हासिल किया जा सकता है, उसकी तुलना में नगण्य ही होगा। केवल सर्वशक्तिमान ही दयालु हो सकता है और इसलिए उद्दंड पुत्र सरकार के पैतृक द्वार के अलावा और कहां लौट सकता है?

उपरोक्त उद्धरण उस याचिका से लिया गया है, जिसे प्रख्यात राष्ट्रवादी इतिहासकार आर. सी. मजूमदार की पुस्तक ‘अंडमान में दंडात्मक बस्तियाँ’ में प्रतिलिपि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह पुस्तक 1975 में तत्कालीन संस्कृति विभाग, शिक्षा एवं समाज कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के गजेटियर्स यूनिट द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक के प्रासंगिक पृष्ठ (पृष्ठ 211-214) हाल ही में संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) प्रह्लाद सिंह पटेल द्वारा 23 मार्च 2020 को लोकसभा में एक अतारांकित प्रश्न के उत्तर के अनुलग्नक के रूप में प्रसारित किए गए थे।

गौर कीजिए कि सावरकर खुद को किस तरह से पेश करते हैं – “संवैधानिक प्रगति के प्रबल समर्थक” और “अंग्रेज सरकार के प्रति वफ़ादार”। यह भी गौर कीजिए कि वे यह आश्वासन दे रहे हैं कि उनके सभी अनुयायी जेल से उनकी रिहाई पर “खुशी और कृतज्ञता से जयकार करेंगे” और यह “भारत और विदेशों में उन सभी गुमराह युवाओं को वापस लाएगा, जो कभी मुझे अपना मार्गदर्शक मानते थे।” वे क्रूर ब्रिटिश शासकों को फिर से आश्वस्त करते हैं कि वे “सरकार की किसी भी क्षमता में सेवा करने के लिए तैयार हैं”। वे खुद को “सरकार के पैतृक द्वार” पर लौटने वाला “उद्दंड पुत्र” घोषित करते हैं। संक्षेप में, सावरकर अपनी आत्मा – और अपने अनुयायियों को भी – औपनिवेशिक आकाओं को उनकी क्षमादान के बदले में बेचने को तैयार हैं।

जैसा कि हुआ, 1920 में भारत स्थानांतरित होने और पुणे की यरवदा जेल में बंद होने तक सावरकर अंग्रेजों से लगातार गुहार लगाते रहे। अंततः उन्हें 1923 में इस शर्त पर रिहा किया गया कि वे महाराष्ट्र के तटीय रत्नागिरी जिले में ही रहेंगे और किसी भी राजनीतिक गतिविधि से दूर रहेंगे।

अंडमान जेल में अपने लंबे प्रवास के दौरान, सावरकर को कठोर श्रम करना पड़ा, उन्हें यातनाएँ दी गईं और आम तौर पर उस कुख्यात जगह के सभी कैदियों की तरह उनके साथ भी बुरा व्यवहार किया गया। अन्य लोगों ने उन भयावह परिस्थितियों का वर्णन किया है, जिनमें कैदी रहते थे और अक्सर मर जाते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वह बाहर निकलना चाहते थे – जो स्वाभाविक है – लेकिन उन सैकड़ों अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के विपरीत, जिन्होंने ब्रिटिश जेलरों के हाथों कष्ट सहे, वह बाहर निकलने के लिए अपने नैतिक, वैचारिक और राष्ट्रवादी व्यक्तित्व को दांव पर लगाने को तैयार थे। निस्संदेह, भगत सिंह इन वीर पुरुषों और महिलाओं में सबसे प्रतिभाशाली हैं। उन्होंने भी औपनिवेशिक शासकों के विरुद्ध हिंसक विरोध का रास्ता अपनाया। उन्हें भी अपने साथियों के साथ जेल में डाला गया। उन्होंने भी कई किताबें, लेख, पर्चे आदि लिखे। लेकिन उन्होंने हमेशा अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में सभी शोषित लोगों के हितों का समर्थन किया। उन्होंने कभी क्षमा दान या जेल से रिहाई की माँग नहीं की। उन्हें 1931 में 23 वर्ष की अल्पायु में फाँसी दे दी गई।

*हिंदुत्व विचारधारा का उभार*

यरवदा जेल और फिर रत्नागिरी ज़िले में बिताए अपने वर्षों के दौरान सावरकर ने नाटक, निबंध, कविताएँ आदि विपुल मात्रा में लिखे, लेकिन उनमें ब्रिटिश शासकों की आलोचना और उन्हें उखाड़ फेंकने की महत्वाकांक्षा दोनों ही गायब थीं। उनकी पुस्तक ‘हिंदुत्व’ 1923 में ‘मराठा’ छद्म नाम से प्रकाशित हुई थी। इसमें हम हिंदुत्व की उभरती विचारधारा को देखते हैं, जिसे वे हिंदूवाद को एक विदेशी शब्द के रूप में इस्तेमाल करने की निंदा करते हुए, तरजीह देते हैं। यहीं पर सावरकर के कुछ मौलिक विचार मूर्त रूप लेते हैं। वे भारतीय इतिहास की व्याख्या मुसलमानों और हिंदुओं के बीच एक लंबे युद्ध के रूप में करते हैं। इसी युद्ध के दौरान, जैसा कि वे कहते हैं, “हमारे लोग स्वयं को हिंदू मानने के प्रति अत्यधिक जागरूक हो गए और एक ऐसे राष्ट्र में विलीन हो गए, जो हमारे इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया था।” उनके उग्र-राष्ट्रवादी यूरोपीय विचार एक हिंदू राष्ट्र के रूप में प्रकट होते हैं, जो अपनी पहचान बनाने के लिए प्रयासरत है। उन्होंने तर्क दिया कि हिंदू एक ही रक्त से बंधे हैं, और हिंदू “अपनी महान सभ्यता – हमारी हिंदू संस्कृति – की एक साझा विरासत के बंधन से” एकजुट हैं। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं और ये कभी एक साथ नहीं रह सकते। उन्होंने हिंदू पहचान को एकजुट करने और साकार करने के साधन के रूप में हिंसा — विशेष रूप से मुसलमानों के खिलाफ — का महिमामंडन भी किया। यह पुस्तक, जिसका बाद में 1928 में विस्तार हुआ और जिसका शीर्षक था “हिंदुत्व : हिंदू कौन है?”, आरएसएस के संस्थापक के.बी. हेडगेवार सहित कई लोगों के लिए वैचारिक स्रोत बन गई। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर ने अपने लेखन में इन विचारों का भरपूर उपयोग किया।

1937 में, रत्नागिरी में उनकी नज़रबंदी हटा ली गई और वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष बन गए। उनके मार्गदर्शन में ही महासभा ने अंग्रेजों के प्रति नरम रुख अपनाया, उन्हें खुश करने के लिए मध्य प्रांत और बंगाल की सरकारों में भाग लिया और बाद में हिंदुओं को द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने के लिए ब्रिटिश सेना में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया, इस तर्क के साथ कि इससे हिंदुओं को आग्नेयास्त्रों के उपयोग का आवश्यक प्रशिक्षण मिलेगा। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि महासभा न केवल भारत छोड़ो आंदोलन से दूर रहे, बल्कि अंग्रेजों को इसे दबाने में भी मदद करे। महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी (जिन्होंने बाद में भारतीय जनसंघ की स्थापना की) भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बंगाल में फजलुल हक मंत्रिमंडल में मंत्री थे। उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत और सिंध में, महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन करके मंत्रालय बनाए। यह नए सावरकर थे : एक हिंदुत्व कट्टरपंथी और अंग्रेजों का सहयोगी।

*महात्मा गांधी की हत्या*

जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल होने के संदेह में सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया। गृह मंत्री सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री नेहरू को लिखा, “यह सावरकर के अधीन हिंदू महासभा की एक कट्टरपंथी शाखा थी, जिसने यह साजिश रची और उसे अंजाम तक पहुँचाया।” (दुर्गा दास, सरदार पटेल पत्राचार, 1945-50, खंड VI, पृष्ठ 56)

बाद में, पटेल ने मुखर्जी को लिखा, “…हम इस तथ्य से आँखें नहीं मूंद सकते कि महासभा के सदस्यों की एक बड़ी संख्या ने इस त्रासदी पर खुशी मनाई और मिठाइयाँ बाँटीं…। इसके अलावा, जिस उग्र सांप्रदायिकता का प्रचार कुछ महीने पहले तक महासभा के कई प्रवक्ताओं, जिनमें महंत दिग्विजय नाथ, प्रो. राम सिंह और देशपांडे जैसे लोग शामिल थे, द्वारा किया जा रहा था, उसे सार्वजनिक सुरक्षा के लिए ख़तरा ही माना जा सकता था। यही बात आरएसएस पर भी लागू होती है, जहाँ सैन्य या अर्ध-सैन्य आधार पर गुप्त रूप से संचालित संगठन में अतिरिक्त ख़तरा निहित होता है।” (वही, खंड VI, पृष्ठ 66)

महाराष्ट्र के बारे में बात करते हुए, बॉम्बे के मुख्यमंत्री बी जी खेर ने पटेल को लिखा, “हिंदू महासभा द्वारा कांग्रेस और महात्मा गांधी के खिलाफ नफरत का माहौल बनाने की कोशिश की गई, जिसकी परिणति कुछ महाराष्ट्रियों के हाथों महात्मा गांधी की हत्या के रूप में हुई।” (ibid., खंड VI, पृ. 77-78.)

यद्यपि गांधी हत्याकांड के मुकदमे में सावरकर को दोषी नहीं ठहराया जा सका, क्योंकि सरकारी गवाही की पुष्टि करने वाले स्वतंत्र साक्ष्य उपलब्ध नहीं थे, फिर भी 1965 में न्यायमूर्ति जीवन लाल कपूर की अध्यक्षता में गठित जाँच आयोग ने सावरकर के दो निकट सहयोगियों, ए.पी. कसार और जी.वी. दामले, जिन्होंने मुकदमे में गवाही नहीं दी थी, की गवाही सुनी। उन्होंने सरकारी गवाह के बयानों की पुष्टि की। आयोग सरदार पटेल के निष्कर्ष से काफी मिलते-जुलते निष्कर्ष पर पहुँचा : “इन सभी तथ्यों को एक साथ मिलाकर देखा जाएं, तो ये सभी तथ्य सावरकर और उनके समूह द्वारा हत्या की साजिश के अलावा किसी भी अन्य सिद्धांत को ध्वस्त कर देते हैं”। (महात्मा गांधी की हत्या की साजिश की जाँच आयोग की रिपोर्ट, 1970, पृष्ठ 303, अनुच्छेद 25.106)

“छह गौरवशाली युग”

बरी होने के बावजूद, सावरकर गांधी हत्याकांड के दाग़ से अपूरणीय रूप से कलंकित थे। हिंदू महासभा ने खुद को भंग कर लिया था। उन्होंने मुकदमे के दौरान ही अन्य षड्यंत्रकारियों से खुद को अलग कर लिया था, शायद उन्हें फिर से जेल जाने का डर था। उन्होंने अपने अंतिम वर्ष गुमनामी में अपनी महान कृति “भारतीय इतिहास के छह गौरवशाली युग” पर काम करते हुए बिताए। यह पुस्तक 1963 में प्रकाशित हुई थी, यानी उनके अन्न-जल त्यागकर आत्महत्या करने से ठीक तीन साल पहले।

छह युग उन कालखंडों का उल्लेख करते हैं, जब हिंदू राष्ट्र ने खुद को “विदेशी प्रभुत्व की बेड़ियों” से मुक्त किया। यह पुस्तक “विदेशी” धर्मों के विरुद्ध एक कटु आलोचना तो है ही, साथ ही सावरकर के अनुसार यह उस सौम्य और शांत हिंदू समाज की भी तीखी आलोचना करती है, जिसने खुद को गुलाम बनने दिया। सावरकर हिंदू शासकों और सेनाओं की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि उन्होंने पराजित मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार नहीं किया, मुसलमानों का नरसंहार नहीं किया, उनकी मस्जिदों को नहीं तोड़ा, आदि। वे इस मार्ग पर चलने वाले कुछ वीर पुरुषों और महिलाओं की महिमा का बखान करते हैं और हिंदू राष्ट्र के गौरव को पुनः प्रज्वलित करने के लिए इसी तरह का मार्ग अपनाने पर ज़ोर देते हैं।

इस पुस्तक में सावरकर ने एक भयावह और बर्बर नैतिकता प्रस्तुत की है : क्या पुण्य है या क्या नहीं, यह इस बात से तय होता है कि वह हिंदू राष्ट्र के लिए अच्छा है या नहीं। इसलिए मुस्लिम महिलाओं का बलात्कार करना और उन्हें अपने धर्म में शामिल करना अच्छा है, क्योंकि इससे हिंदू जनसंख्या बढ़ती है। दरअसल, आज भी, आरएसएस के कार्यकर्ता सावरकर के कार्यों को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि उन्होंने हिंदुओं के साथ विश्वासघात नहीं किया।

इस पुस्तक में सावरकर के चिंतन का सार निहित है, जो आज के हिंदुत्व ब्रिगेड को गहराई से प्रभावित करता है। हिंदू राष्ट्र का पुनरुत्थान, हिंदू सिद्धांतों पर आधारित एक गौरवशाली अखंड भारत की स्थापना, योद्धा जैसा आचरण और एक श्रेष्ठ जाति का उदाहरण, ये सभी स्वप्न सावरकर से ही उत्पन्न हुए थे। उनके जीवन और कार्यों का स्वतंत्रता संग्राम की भावना या उसके विभिन्न पहलुओं से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि वे वास्तव में अपने जीवन के अधिकांश समय अंग्रेजों के साथ रहे थे। और, वे संविधान की धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिक सौहार्द्र और लोकतंत्र की भावना के भी विरोधी थे।

 

*(आलेख : सवेरा, अनुवाद : संजय पराते)*
*(लेखक शोध अध्येता हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)*